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किया । उसे देखकर मामा की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने कहाबेटे ! तूने कुल को उज्ज्वल कर दिया है ! तू बड़ा पुरुषार्थी है ! तत्पश्चात् नगर के अग्रगण्य व्यापारियों द्वारा सन्मानित हो, चारुदत्त ने अपने घर में प्रवेश कर माँ को प्रणाम किया और अपनी पत्नी को आलिंगन पाश में बाँध लिया ।'
एक बार की बात है, कृष्ण का पुत्र प्रद्युम्न अपने दादा वसुदेव से वार्तालाप कर रहा था । प्रद्युम्न बात-बात में पूछ बैठा-दादाजी, आपने सौ वर्ष परिभ्रमण कर मेरी अनेक दादियों को प्राप्त किया है । लेकिन जरा अपने पोते शंब के अंतःपुर की ओर भी नजर डालिए । भाई सुभानु के लिए एकत्र की हुई समस्त कन्याओं का विवाह शंब से हो गया है !
वसुदेव अपने पोते की 'छोटा मुँह, बड़ी बात' सुनकर क्रोध में भर गया । प्रद्युम्न को संबोधित करते हुए वसुदेव ने कहा-'अरे प्रद्युम्न ! क्या तू नहीं समझता कि शंब कूपमंडूक है ? केवल स्वयं प्राप्त भोगों को भोगकर वह संतुष्ट हो गया है । लेकिन जानता है कि देश-विदेश में परिभ्रमण करके मैंने जिन सुख-दुःखों का अनुभव किया है, वह अन्य किसी के लिए दुष्कर है । इभ्यपुत्रों की प्रतिज्ञा
किसी नगर में दो इभ्यपुत्र रहते थे। एक अपने मित्रों के साथ उद्यान से नगर में जा रहा था । दूसरा रथ में सवार हो, नगर से बाहर जा रहा था । नगर द्वार पर दोनों की भेंट हुई । गर्व के कारण दोनों में से कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था। दोनों में वाद-विवाद होने लगा ।
एक ने कहा-पिता के द्वारा अर्जित धन पर क्या गर्व करते हो ? स्वयं अर्जित करके लाओ, तो समझें ?
दूसरा---और क्या तुम्हारा धन तुम्हारे पिता का कमाया हुआ नहीं है ? स्वयं कमाकर दिखाओ !
दोनों के गर्व को चोट पहुँची। दोनों ने प्रतिज्ञा की-जो परिवार के बिना, अकेले ही, बारह वर्ष बाद बहुत-सा धन अर्जित करके वापिस आयेगा, उसकी अपने मित्रों सहित दूसरा गुलामी करेगा।
यह लिखकर उन्होंने एक सेठ को दे दिया । १. वसुदेव हिंडी, पृ० १४४-५४ २. बही, पृ० ११०
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