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________________ ३८ पहला इभ्यपुत्र अपने गर्व की रक्षा के लिए वहीं से धनार्जन के लिए रवाना हो गया । विदेश में समुद्र यात्रा द्वारा व्यापार करके उसने बहुत-सा धन अर्जित किया और अपने मित्रों को भेजा । दूसरा अपने मित्रों के अनुरोध पर भी जाने के लिए तैयार न हुआ । वह सोचता रहा -- जितना धन वह बहुत समय में कमायेगा, उतना मैं अल्प समय में कमा लूँगा । किन्तु बारहवें वर्ष में, पहले इभ्यपुत्र का आगमन सुनकर दूसरा इभ्यपुत्र दुखी होकर सोचने लगा- - दुखों से भयभीत और विषयों की लोलुपता के कारण मैंने बहुत-सा समय ऐसे ही बिता दिया. अब एक वर्ष में मैं कितना कमा सकूँगा ? अतएव शरीर का त्याग करना ही श्रेयस्कर है ।' दो व्यापारी मित्र अपना माल लेकर बनिज - व्यापार के लिए देश-देशान्तर में परिभ्रमण करने वाले सार्थवाहों और पोत-वणिकों की अनेक कहानियाँ प्राकृत जैन कथा साहित्य में उपलब्ध होती हैं । कुवलयमाला में थाणु और मायादित्य नामक दो मित्रों की कथा आती है । दोनों में वार्तालाप हो रहा है । थाणु- - मित्र ! लोक में धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों में से जिसके एक भी नहीं, उसका जीवन जड़वत् है । हम लोगों के धर्म तो है नहीं, क्योंकि हम दान और शील से रहित हैं । अर्थ भी दिखायी नहीं देता और अर्थ के अभाव में काम कहाँ से हो सकता है ? ऐसी हालत में हे मित्र ! हमारा जीवन तराजू के अग्रभाग में लटका हुआ है, अतएव हम लोग क्यों न कहीं चलकर अर्थ का उपा र्जन करें जिससे शेष पुरुषार्थों की सिद्धि हो । मायादित्य — तो मित्र ! बनारस क्यों न चला जाये ? वहाँ पहुँचकर हम जुआ खेलेंगे, सेंध लगायेंगे, ताले तोड़ेंगे, राहगीरों को लूटेंगे, लोगों की गांठ कतरेंगे, कूट-कपट खेलेंगे, ठगविद्या करेंगे । और भी ऐसे-ऐसे कार्य करेंगे जिससे धन की प्राप्ति हो । १. वसुदेवहिंडी, पृ० ११६-१७ । यहाँ बताया गया है कि तप के कारण तपस्वी जन पूजाप्रतिष्ठा के पात्र होते हैं । इस कहानी की राजोवाद जातक (१५१) कहानी से तुलना कीजिए । देखिए, जगदीशचंद्र जैन, 'प्राचीन भारत की कहानियाँ' में 'दोनों में बड़ा कौन' ? कहानी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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