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ने उसे पहचानकर मित्रवती को खबर दी । माँ ने, जिस अवस्था में वह बैठी थी उसी अवस्था में बाहर निकलकर सानुदास का आलिंगन किया । ऐसा लगा कि वह गाढ़ निद्रा में सोयी हुई है । न वह कंपित हुई और न उसने श्वास ही लिया। उसके नेत्रों से अविरल जल की धारा बह रही थी। दरिद्रता की मूर्ति के समान वह जान पड़ी । सानुदास के स्नान के लिए पड़ौस से, लाख से बन्द किये हुए छेदवाला और ओठ-टूटा पानी का घड़ा लाया गया । लेकिन वह घड़ा फूट गया
और सानुदास को पुष्करिणी में जाकर स्नान करना पड़ा । कांजी और कोदों को वह बडे मुश्किल से गले उतार सका । एक रात एक लाख वर्ष की भाँति बितायी। इस परिस्थिति में सानुदास को बहुत वैराग्य हुआ । प्रातःकाल होने पर उसने अपनी माँ के सामने प्रतिज्ञा की कि प्रक्षपित द्रव्य का चौगुना धन कमाकर ही वह घर में पाँव रक्खेगा । उसकी माता ने उसे परदेश जाने से रोकते हुए कहा कि वह किसी-न-किसी तरह उसकी और उसकी स्त्री की आजीविका चलायेगी। लेकिन सानुदास ने एक न सुनी । माता को प्रणाम करके नरक के समान उस दरिद्रवाटक से निकल कर वह चल दिया । माता कुछ दूर तक उसके साथ आई । उसने ताम्रलिप्ति में उसके मामा के घर जाने का अनुरोध किया। पितृबंधुओं की अपेक्षा मातृबंधुओं की ही उसने प्रशंसा की।
सानुदास ने पूर्व दिशा की ओर प्रस्थान किया । मार्ग में फटी पुरानी छतरी और जूते लिये, कंधों पर पुराना चर्म और भोजन-पात्र ले जाते हुए यात्री दिखाई पड़े । सानुदास के परिचारक बन, उसे रम्य कथाएँ सुनाते हुए वे आगे बढ़े। सानुदास सिद्धकच्छप ग्राम में पहुँचा । वहाँ सानुदास अपने पिता मित्रवर्मा के भृत्य सिद्धार्थक नाम के वणिक् के घर में गया । उसने सानुदास को धन देना चाहा । सानुदास ने सार्थ के साथ ताम्रलिप्ति के लिए प्रस्थान किया । खण्डचर्म नामक पाशुपत का समागम । अटवी में प्रवेश । गंभीर गुफा वाली नदी । कालरात्रि के समान पुलिंदसेना का आक्रमण | संभ्रम के कारण दिग्भ्रांत होकर सानुदास का पलायन । सार्थ से भ्रष्ट होकर गहन वन में प्रवेश । ताम्रलिप्ति के लिए गमन । वहाँ पहुँचकर अपने मामा गंगदत्त के घर की तलाश । एक वणिक ने कहा कि गंगदत्त के घर को कौन नहीं जानता ? जो पूर्णमासी के चन्द्रमण्डल को नहीं जानता, वह गंगदत्त के घर को भी नहीं जानता । वह वणिक् स्वयं सानुदास को उसके घर ले गया । सानुदास का स्वागत । मामा ने भाणजे से कहा कि उसके अपने पास जो अतुल धन की राशि है, वह मित्रवर्मा की
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