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________________ १५८ धनराशि से ही अर्जित की गयी है, अतः जितना धन कमाकर लाने की उसने प्रतिज्ञा की है, उससे चौगुना धन लेकर वह अपनी माँ के पास लौटकर जा सकता है । सानुदास ने उत्तर में , कहा-मामाजी ! अर्थोपार्जन के लिए मैंने जो दृढ़ प्रतिज्ञा की है, उसमें आप विघ्न उपस्थित न करें । तत्पश्चात् समुद्र यात्रा के लिए गमन करने वाले किसी सांयात्रिक के साथ, प्रशस्त तिथि और नक्षत्र में, देव-द्विज और गुरु की पूजापूर्वक, उसने अपनी यात्रा प्रारंभ की ।' जहाज का टूटना । समुद्र तट पर पहुँच एक अंगना को देखा। जहाज फट जाने के कारण वह भी उस तट पर आ लगी थी। राजगृह के निवासी सागर सार्थवाह और यवन देशोत्पन्न यावनी नाम की उसकी भार्या की वह पुत्री थी । उसका नाम था सागरदिन्ना । चंपानिवासी मित्रवर्मा के सकल कलाविद् सानुदास नामक पुत्र के गुणों की प्रशंसा सुनकर उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह करने का सागर ने संकल्प किया था। दोनों ने परस्पर अपना परिचय दिया । समुद्र अपनी गंभीर ध्वनि से सूर्य का वादन कर रहा था, शिलीमुख श्रुतिमधुर गान गा रहे थे, और उन्मत्त मयूर नृत्य कर रहे थे । ऐसे सुहावने समय में नायिका के स्वेदयुक्त आगे बढ़ते हुए दक्षिण कर को नायक ने थाम, उसे आलिंगनपाश में बांध लिया । दोनों प्रीतिपूर्वक रहने लगे । उन्होंने वृक्ष पर ध्वजा फहरा दी, रात्रि में अग्नि प्रज्वलित की, जिससे कोई नाविक उन दोनों को वहां से ले जाकर स्वदेश पहुँचा दे। यानपात्र में प्रस्थान । पूर्व की भाँति यानपात्र विपन्नावस्था को प्राप्त । समुद्रदिन्ना का जल के प्रवाह में बह जाना । सानुदास एक ग्राम में पहुँचा । जिस किसी से वह कुछ पूछता, उसे उत्तर मिलता-"तुम्हारी बात समझ में नहीं आती। किसी दुभाषिये की सहायता से वह अपने एक रिश्तेदार के घर गया । पता लगा कि वह पांड्यदेश में पहुँच गया है । प्रातःकाल किसी सत्रमंडप (धर्मशाला) में गया, जहाँ विदेशियों का क्षौरकर्म हो रहा था; कहीं मालिश की जा रही थी। पांड्यमथुराके जौहरी-बाजार में पहुँचा । किसी आभूषण का दाम कूतने के कारण उसे कुछ द्रव्य की प्राप्ति हुई । सानुदास की ख्याति सुनकर राजा ने उसे अपना रत्न-परीक्षक नियुक्त कर लिया । तत्पश्चात् थोड़ी पूंजी से अधिक धन कमाने के १. वही, भाग ३, १३३-२५२ पृ. २३४-४२ २. वही, भाग ४, २५३-३६, पृ० २४२-४७ । ३. मूल पाठ है 'घन्निनु चोल्लिति'-तमिल भाषा में । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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