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________________ १७१ वसुदेवहिंडी से कितनी ही बातों में भिन्न है, लेकिन पद्यात्मक होने से वसुदेवहिंडी जितना यह प्राचीन नहीं जान पड़ता। नेमिचन्द्रसूरि की उत्तराध्ययन की वृत्ति की अपेक्षा वसुदेवहिंडी के कथानक की भाषा मौलिक होने के कारण अधिक सरल और स्वाभाविक प्रतीत होती है । दोनों कथानकों में पात्रों आदि के नाम एवं घटनाओं में जो विभिन्नता पायी जाती है, इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि पूर्वकाल में अगड़दत्तचरित नामक कोई स्वतंत्र रचना रही होगी, जिसके आधार से वसुदेवहिंडीकार ने अपना कथानक रचा । शांतिसूरि ने 'विस्तार-भय के कारण' इसे संक्षिप्त रूप में स्वीकार कर लिया । नेमिचन्द्रसूरि का स्रोत संभवतः वसुदेवहिंडी के स्रोत से भिन्न रहा हो। अपने कथानकों की रचना उन्होंने “पूर्व प्रबन्धों का अवलोकन करके" की है।' २ कोक्कास बढ़ई की कहानी वसुदेवहिंडो और बुद्धस्वामी के बृहत्कथाश्लोकसंग्रह दोनों में यह कथानक वर्णित है । इस कथानक की तुलना की जा चुकी है । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में कोक्कास की जगह पुक्कसक नाम आता है । दोनों रूपान्तरों में कोक्कास यवन देशवासियों से आकाशयंत्र विद्या की शिक्षा ग्रहण करता है । कोक्कास की कन्या रत्नावली और उसके कुशल शिल्पी दामाद विश्विल का उल्लेख वसुदेवहिंडी में नहीं है । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में विश्विल आकाशयंत्र का निर्माण करता है । यंत्र तैयार हो जाने पर वह राजा से निवेदन करता है कि वह यंत्र समस्त नागरिकों का भार वहन करने में सक्षम है। विश्विल राजा आदि को गरुडाकार यंत्र में बैठाकर, सारी पृथ्वी की सैर कराकर वापिस ले आता है। वसुदेवहिंडी के शिल्पी कोक्कास का राजा से कहना था कि उसके यंत्र में केवल दो व्यक्ति ही बैठ सकते हैं, तीसरे व्यक्ति का भार वह वहन नहीं कर सकता । लेकिन महारानी ने यंत्र में सवार हो, आकाश-भ्रमण की ज़िद की । परिणाम यह हुआ कि यंत्र पृथ्वी पर आ गिरा । कोक्कास ने दो घोटक-यंत्रों का निर्माण किया, राजकुमार घोटकयंत्र को लेकर आकाश में उड़ गये । लेकिन यंत्र को लौटाने की कील उनके पास नहीं थी, इसलिए वे लौटकर वापिस न आ सके । परिणामस्वरूप कोक्कास के वध की आज्ञा दे दी गयी ।। डाक्टर आल्सडोर्फ ने अगड़दत्त कथानक के तीनों रूपान्तरों का विश्लेषण करते हुए, अगदत्त (कुएँ द्वारा प्रदान किया हुआ), भुजङ्गम (सर्प) आदि कथानक के व्यक्ति वाचक नामों के ऊपर से इसे हजारों वर्ष प्राचीन कथानकों की श्रेणी में रक्खा है । देखिए, ए न्यू वर्जन आफ अगदत्तस्टोरी, न्यू इंडियन ऐंटीक्वेरी, जिल्द १, १९३८-३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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