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काले धर्म श्रवण करने की इच्छा भी उनमें नहीं रहती - ऐसे ही जैसे कि ज्वरपित्त से जिसका मुँह कडुआ हो गया है, उसे गुड-शक्कर खाण्ड अथवा बूरा भी कडुआ लगने लगता है।....अंतएव जैसे कोई वैद्य अमृतस्वरूप औषध - पान से पराङ्मुख रोगी मनोभिलषित औषधपान के बहाने अपनी औषधि पिला देता है, उसी प्रकार कामकथा में रत हृदय वाले लोगों का मनोरंजन करने के लिए, मैं शृङ्गारकथा के बहाने अपनी धर्मकथा उन्हें सुनाता हूँ ।'
कुवलयमाला के कर्त्ता उद्योतनसूरि ने भी अपनी धर्मकथा को कामशास्त्र से सम्बद्ध बताते हुए कहा है कि पाठक इसे अर्थविहीन न समझें, क्योंकि धर्म की प्राप्ति में यह कारण है । सुविज्ञ श्रोताओं एवं पाठकों से अपनी कथा को कान देकर श्रवण करने का अनुरोध करते हुए, नवागत वधू से उसकी तुलना करते हुए ग्रंथकार ने कहा है
"वह अलंकार सहित है, सुभग है, ललित पदावलि से युक्त है मृदु और मंजुल संलाप वाली है, सहृदय जनों को आनन्द प्रदान करने वाली है-इस प्रकार नववधू के समान वह शोभित होती है । "३
प्रेमक्रीडाएँ
कितनी ही वार वसंत क्रीड़ाओं अथवा मदन - महोत्सवों आदि के अवसरों पर नववेश धारण किये हुए युवक और युवतियों का परस्पर मिलन होता और मदनशर से घायल हो वे अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं। युवक कामज्वर से पीड़ित रहने लगता; युवती की भी यही दशा होती । कर्पूर, चन्दन और जलसिंचित तालवृन्त आदि से उपचार किया जाता । प्रेम-पत्रों का आदान प्रदान शुरू हो जाता । कभी कोई युक्ती किसी राजा आदि के गुणों की प्रशंसा सुन, अथवा उसका चित्र देख उस पर मुग्ध हो जाती । संदेशवाहक का काम शुक से लिया जाता । शुक के पेट में से एक सुन्दर हार और कस्तूरी से लिखा हुआ प्रेमपत्र निकलता । पत्र पढ़कर
१. वसुदेवहिंडी भाग २ मुनि पुण्यविजयजी की संशोधितहस्तलिखित प्रति पृ. ३ २. अम्हे वि एरिसा चउव्विहा धम्मकहा समाढत्ता । तेण किंचि कामसत्थसंबद्धं पि भण्णिeिs
तं च मा णिरत्थयं ति गणेज्जा । किंतु धम्मपडिवत्तिकारणं.....।
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- कुवलयमाला. ९, पृ० ५
३. सालंकारा सुहया ललियपया मउय - मंजु - संलावा । सहियाण देइ हरिसं उब्वूढा णववहू चेव ॥
- वही, ८, पृ०४
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