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आकांक्षी पुरुष को अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा दी गयी है । पहली कथा की भूमिका का निम्नलिखित वक्तव्य उल्लेखनीय है-“संसार में निश्रेयस की प्राप्ति के इच्छुक लोगों को सदैव अपने सदाचरण के ज्ञान में वृद्धि करते रहना चाहिए । यह सदाचरण का परिज्ञान मूर्खजनों के चरित पढ़कर हो सकता है। इन चरितों को, लेखक अपनी बुद्धि से कल्पित वस्तु प्रवर्तन के अनर्थ दर्शन द्वारा अभिव्यक्त करता है । इस प्रकार की अभिव्यक्ति तथा मूर्खजनों द्वारा किये जाते हुए आचरण के परिहार के लिए लेखक ने भरटद्वात्रिंशिका की रचना की है।"
इन कहानियों में लंपट, वंचक, धूर्त, मूर्ख और मिथ्याभाषी पुरुषों का सरस चित्रण देखने में आता है। ग्रामकवियों का उपहास किया गया है।
किसी ग्रामकवि को बहुत याचना करने पर भी कुछ न मिला। लेकिन भरटक (शैव-उपासक साधु) के शिष्य खा-पीकर मौज से रहते थे, यद्यपि वे न कभी पढ़ते-लिखते थे और न कभी काव्य की रचना ही करते थे । इसके विपरीत, वह रोज नये-नये काव्य की रचना करता, फिर भी कर्म की परवशता के कारण भूखा ही मरता।'
सातवीं कथा में एक मूर्ख शिष्य की कथा आती है। किसी शिष्य को भिक्षा में ३२ बाटियाँ मिलीं । उसे भूख लगी थी। उसने सोचा कि इनमें से गुरु
जी को आधी देनी पड़ेगी, इसलिए वह आधी बाटियों को खा गया । अब सोलह रह गयीं । फिर उसके मन में वही विचार आया । वह फिर आधी खा गया । आठ बच गई । उनमें से फिर आधी खा लीं । चार रह गई, दो रह गई, एक रह गई, अंत में आधी बची।
उसे लेकर गुरुजी के पास पहुँचा । उन्होंने पूछा-क्या बस भिक्षा में यही मिला था ?
शिष्य-नहीं महाराज ! मुझे भूख लगी थी, बाकी मैं खा गया। गुरुजी-कैसे ? शिष्य ने शेष बची हुई आधी बाटी को भी खाकर बता दिया ।
भरटक तव चट्टा लंबपुट्ठा समुद्धा । न पठति न गुणंते नेव कव्वं कुणते॥ वयमपि न पठामो किंतु कव्वं कुणामो । तदपि भुख मरामो कर्मणा कोत्र दोषः ॥
-५ वी कथा
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