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लेकिन भोजन के समय बनिये को पीने के लिए पानी नहीं दिया । वणिक ने पानी माँगा। बनिये ने दूर से पानी का लोटा दिखाकर कहा - यह रहा पानी।
"क्या पानी को दूर से देखकर प्यास बुझाई जा सकती है." वणिक् ने पूछा।
“और जलते हुए दीपक को दूर से देखकर सर्दी दूर हो सकती है ?" बनिये ने उत्तर दिया।
इसके अलावा, धूर्त और ककड़ी बेचने वाला कुंजडा', धरोहर वापिस न देने वाला पुरोहित, किसान और गंधीपुत्र आदि अनेक रोचक आख्यान प्राकृत जैन कथा-साहित्य में वर्णित हैं। ये केवल मनोरंजनात्मक ही नहीं हैं, इनके पीछे आचार-व्यवहार और नीति-न्याय की भावना सन्निहित है।
३. मुखौं और विटों की कहानियाँ कथा-कहानियों में मूखों और विटों का महत्त्व भी कम नहीं है । जैसे धूर्तो और ठगों की धूर्तता और ठगी से, वैसे ही मूरों की मूर्खता से भी रक्षा करना आवश्यक है ।
भरटद्वात्रिंशिका में ३२ कथाओं का संग्रह है। इसे मुग्धकथा का सुंदर उदाहरण कहा जा सकता है, जिसमें मुग्धकथाओं के बहाने, जीवन में सफलता के १. आवश्यकचूर्णी, पृ०) ५२३-२४ । 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ' (द्वितीय संस्करण )
में 'पंडित कौन' कहानी। २. आवश्यकचूर्णी, पृ० ५४६ । 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ' में 'कुंजडा और धूर्त' कहानी।
तुलनीय शुकसप्तति (५५) की श्रीधर ब्राह्मण और चन्दन चमार की कहानी से तथा
देखिये विनोदात्मक कथासंग्रह. कथा ३९ ३. आवश्यकचूर्णी, पृ० ५५० । 'दो हजार बरस पुरानी कहानियाँ' में 'पुरोहित की नियत'
कहानी। ४. देखिए; पीछे, पृ. ६० ५. चतुर्माणी के अन्तर्गत ईश्वरदत्तकृत धूर्तविट संवाद से पता लगता है कि पाटलिपुत्र के राज
मार्गों में विटों की बहुत भीड़ रहती थी । भरत मुनि ने विट को वेश्योपचार में कुशल, मधुरभाषी, सभ्य, कवि, ऊहापोह करने में सक्षम, वाक्पटु एवं चतुर कहा है । क्षेमेंद्र ने देशोपदेश में उसे क्षीण, गुणविहीन, सदोष, कलासंपन्न तथा कृष्णपक्ष के चन्द्र की
भाँति कुटिल कहकर नमस्कार किया है। ६. जे० हर्टल द्वारा संपादित, लाइज़िग, १९२१ । हर्टल का मत है कि इस द्वात्रिं
शिका का लेखक गुजरात निवासी कोई जैन बिद्वान् होना चाहिए । यह रचना १९२ ई० पूर्व मौजूद थी।
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