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प्रवेश किया । जरासंघ, कंस, पाण्डु, दमघोष, द्रुपद, संजय आदि उत्तम कुल, शील, ज्ञान और रूप से सम्पन्न अनेक राजाओं का रोहिणी की लेखिका ने परिचय कराया । लेकिन रोहिणी को कोई भी आकृष्ट न कर सका । अन्त में वसुदेव के पणव का मधुर शब्द सुनकर वह प्रभावित हुई और वसुदेव के गले में उसने वरमाला डाल दी । यह देखकर स्वयंवरमंडप में उपस्थित राजागण क्षुब्ध हो उठे । कुछ लोग कहने लगे कि उसने तो एक बाजा बजाने वाले को वर लिया है !
दंतवक्र ने कन्या के पिता को ताना मारते हुए कहा - "यदि तेरा अपने कुल पर अधिकार नहीं, तो तू उत्तम वंशोत्पन्न राजाओं को एकत्र क्यों करताफिरता है ?"
रुधिर ने उत्तर दिया- मैं क्या कर सकता हूँ । स्वयंवर का मतलब ही है। कि कन्या अपनी पसन्दगी का वर चुने ।
दंतवक्र - ठीक है कि तुमने अपनी कन्या स्वयंवर में दी है, किन्तु मर्यादा का उल्लंघन करना उचित नहीं है । इस वरण किये हुए पुरुष को त्याग कर, हम क्षत्रियों में से किसी को यह क्यों नहीं वर लेती ?
यह सुनकर वसुदेव से विना बोले न रहा गया । उसने कहा- -क्या गायनवादन आदि कलाओं की शिक्षा क्षत्रियों के लिए निषिद्ध है जो तू मेरे हाथ में पणव देखकर मुझे अक्षत्रिय कहता है ? याद रख, अब तो बाहुबल ही मेरे कुल का निश्चय करेगा । आओ, युद्ध के लिए तैयार हो इस प्रकार स्वयंवर में कन्या के लिए युद्ध हो जाना बल्कि युद्ध होना आवश्यक माना जाता था । नहीं तो पौरुष के प्रदर्शन का और कौनसा अवसर था ।
जाओ ।'
श्रावस्ती नगरी के राजा एणीपुत्र ने अपनी कन्या प्रियंगुसुन्दरी के स्वयम्वर की घोषणा की । किन्तु स्वयम्वर में कोई राजा उसे पसन्द नहीं आया । वह मंडप से ऐसे ही लौट गयी जैसे कि समुद्र की लहरों से प्रतिहत नदी लौट जाती है । यह देखकर राजा क्षुब्ध हो उठे । कहने लगे- इतने क्षत्रियों में से क्या उसे एक भी पसन्द नहीं पड़ा ?
एणीपुत्र को लक्ष्य करके उन्होंने कहा कि उसने नाहक ही इतने राजाओं
को बुलाकर उनका अपमान किया ।
१. वसुदेवहिंडी, पृ० ३६४
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साधारण - सी बात थी; क्षत्रिय राजाओं को अपने
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