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अमितगति की भूमिगोचरी प्रिया सुकुमालिका को धमसिंह विद्याधर हरकर ले गया था।' गांधर्व विवाह की मान्यता
गांधर्व विवाह में एक-दूसरे की पसन्दगी मुख्य रहती थी। कन्या के माता-पिता की अनुमति के बिना, बिना किसी धार्मिक क्रियाकाण्ड और कुलगोत्र के निश्चय के ये विवाह हो जाते और इन विवाहों में किसी को आपत्ति न होती थी। वसुदेवहिंडी के नायक वसुदेव ने १०० वर्ष तक परिभ्रमण कर अनेक विद्याधरों और राजकन्याओं से विवाह किये । इन्हीं विवाहों को लेकर संघदासगणि वाचक ने वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड में २९ और धर्मदासगणि ने मध्यम खण्ड (अप्रकाशित) के ७१ लम्बकों में वसुदेव के परिभ्रमण की कथा लिखी है।
__ तीसरे लम्बक में, कथानायक वसुदेव ने जब श्रेष्ठी चारुदत्त की कन्या को वीणावादन में जीत लिया तो चारुदत्त कहने लगा-"आपने अपने दिव्य पुरुषार्थ द्वारा गन्धर्वदत्ता को प्राप्त किया है, अब आप निर्विघ्न रूप से इसका पाणिग्रहण करें । लोकश्रुति है-ब्राह्मण के ब्राह्मणी, क्षत्रियाणी, वैश्या और शूद्राणी-ये चार भार्याएँ हो सकती हैं । यह आपके अनुरूप है, अतएव आप इसे ग्रहण करें । कुल-गोत्र जानकर आप क्या कीजिएगा ? अतएव या तो आप अग्नि में होम करें या मेरी पुत्री को करने दें"
२७ वें लंबक में रिष्टपुर के राजा रुधिर की कन्या रोहिणी के स्वयंवर के अवसर पर उत्तम वस्त्रालंकारों से विभूषित राजा लोग स्वयंवर मंडप के मंच पर आसीन थे । कथानायक वसुदेव भी पणव (ढोलक) बजाने वालों के साथ पणव हाथ में लिये बैठे थे । कंचुकी और महत्तरों से घिरी हुई रोहिणी ने मण्डप में १. वही, पृ. १४० । द्वारका की राजकुमारी कमलामेला का विवाह राजा उग्रसेन के नाती
धनदेव के साथ होना निश्चित हो गया था। विवाह की तैयारियाँ हो रही थीं। इस समय शंब ने विद्याधर का वेश धारण कर कमलामेला का अपहरण कर लिया और अपने मित्र बलदेव के पौत्र सागरचन्द्र के साथ उसका विवाह करा दिया। देखिए, बृहतूकल्पभाष्य १७२ और बृत्ति, पीठिका, पृ० ५६-५७; दो हजार वरस पुरानी कहानियाँ (प्रथम संस्करण),
पृ०१७३। २. आर. सो टैम्पल के अनुसार, गांधर्व विवाह की प्रतिष्ठा इस बात की ओर लक्ष्य करती
है कि भारत के क्षत्रिय राजा विदेशों में पहुँच गये थे। द ओशन ऑफ स्टोरी का आमुख ३. बुधस्वामी के बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१७, १७५, पृ० २१६) में इस प्रसंग पर अपने कथन
के प्रमाण में मनु का निम्न श्लोक उद्धत किया है
अग्रजोऽवरजां भार्यों स्वीकुर्वन् न प्रदुष्यति । ४. वसुदेवहिंडी, पृ० १३२
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