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वहाँ से वह उठकर चली गयी। आइए, उन दोनों के पदचिह्नों का अनुगमन करते हुए आगे बढ़ें।
उन दोनों ने कामिनियों के रम्य स्थान, चन्द्र, सूर्य, अग्नि और वायु से अस्पृष्ट माधवी लता के कुंज में प्रवेश किया । प्रच्छन्न एवं रमणीय इस स्थान को छोड़कर वह कैसे जा सकता था ? सुखपूर्वक आसीन उनका दर्शन करना उचित नहीं, इसलिए आइए, हम लोग यहीं ठहर जायें ।
तत्पश्चात् लतागृह को देखकर सिर हिलाकर गोमुख ने कहा-वह कामी यहाँ नहीं है।
हरिशिख-अभी तो कहते थे वह है, अब कहते हो नहीं !
गोमुख-क्या तुम अन्धे हो जो माधवी लतागृह से निर्भयतापूर्वक मूक भाव से निकलते हुए शिखण्डिमिथुन को तुमने नहीं देखा ? यदि कोई अन्दर होता तो वह आर्तस्वर करता हुआ उड़कर वृक्षों के कुञ्ज में छिप जाता । देखो, यह पल्लवों का बिस्तर बिछा हुआ है। वृक्ष की शाखा पर हार, नुपूर, मेखला, अन्यत्र अरुण वर्ण का क्षौमवस्त्र और कहीं उसका चर्मरत्न दिखाई दे रहा है ।
ये सब चीजें उन लोगों ने उठा ली जिससे कि विद्याधर के मिलने पर उसे दी जा सकें।
गोमुख अवश्य ही किसी शत्रु ने उसको कान्ता का अपहरण कर लिया है। परवशता के कारण उन दोनों को अपने आभूषण आदि छोड़कर जाना पड़ा। वह विद्याधर दीर्घायु है क्योंकि उसके केश स्निग्ध हैं और वृक्ष की शाखा पर लटके रहने पर भी उनमें सुगन्ध आ रही है ।
तत्पश्चात् कुछ दूर चलने पर किसी कदंब वृक्ष के स्कंध में लोहे के पांच कीलों से बिंधे हुए विद्याधर को उन्होंने देखा ।
उसके चर्मरत्न में पांच औषधियां दिखाई दीं-विशल्यकरणी, मांसविवर्धनी, व्रणरोहणी, वर्णप्रसादनी और मृतसंजीवनी ।
इतने में गोमुख ने आकर सूचना दी कि आर्यपुत्र (नरवाहनदत्त) के प्रसाद से विद्याधर जी उठा है।
औषधियों के प्रभाव से स्वस्थ होकर विद्याधर बोला-बंधन में बंधे हुए मुझको किसने जिलाया है ? गोमुख ने उत्तर दिया-हमारे आर्यपुत्र ने । विद्याधर ने मुक्तकण्ठ से कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित किया ।
तत्पश्चात् उसने अपनी रामकहानी सुनाई - मैं कौशिक मुनि का पुत्र अमितगति नाम का विद्याधर हूँ।
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