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१. कथाओं का महत्त्व जीवन में कथा-कहानी का महत्त्व
प्राचीन काल से ही कथा-साहित्य का जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । जब मानव ने लेखन कला नहीं सीखी थी, तभी से यह कथा-कहानियों द्वारा अपने साथियों का मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन करता आया है। दादी और नानी अपने पोते-पोतियों और नाती-नतनियों को रात्रि में सोते समय कुतूहलवर्धक कहानियाँ सुनाकर उनका मनोरंजन करतीं। इन कहानियों की रोचकता का इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि बालक दिन में भी कहानी सुनने के लिए मचलते रहते । उस समय उनकी नानी यह कहकर उन्हें चुप करती कि दिन में कहानी सुनने से मामा रास्ता भूल जायेगा । भला कोई बालक चाहेगा कि उसका मामा मार्गभ्रष्ट हो जाये ? मनोरंजन की प्रधानता
प्राचीन काल में ऐसे अनेक पेशेवर लोग थे जो विविध खेल-तमाशों द्वारा सर्व-साधारण का मनोरंजन किया करते थे । नट, नर्तक, रस्सी पर खेल दिखाने वाले, बाजीगर, मल्ल, मुष्ठि युद्ध करने वाले, विदूषक, भांड़, कथकै (कथावाचक), रासगायक, मागध (स्तुतिपाठक), ज्योतिषी, वीणावादक आदि ऐसे कितने ही लोग बड़े-बड़े नगरों के चैत्यों और देवायतनों के समीप अड्डा जमाये रहते थे । कथकों का काम था कि जब राजा दिनभर के काम से निबटकर रात्रि के समय अपने शयनीय पर आरूढ़ हो तो वे राजा के हाथ-पैर का संवाहन करते हुए उसे कहानियाँ सुनायें, और कहानी सुनता-सुनता वह आराम से निद्रा देवी की गोद में विश्राम करने लगे।
राजाओं की रानियाँ भी राजा को कहानियाँ सुनाकर आकृष्ट किया करती थीं।
किसी राजा ने चित्रकार की कन्या कनकमंजरी से विवाह कर लिया। उसके अन्तःपुर में और भी अनेक रानियाँ थीं । राजा को कहानी सुनने का शौक था।' १. निशीथसूत्र । १३.५७) में साधु के लिए काथिक की प्रशंसा करने का निषेध है। वह
आहार आदि, यश तथा अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के निमित्त धर्मकथा कहता था (१३.४३५३) । औपपातिक सूत्र में विदूषक, रासगायक और मागध आदि के साथ कथक का उल्लेख है। कथासरित्सागर (२.२.२) भी देखिए । रमणीय नगर का कथानिय राजा प्रतिदिन पुरवासियों को कथा कहने के लिये बुलाया करता था । हेमचन्द्र, परिशिष्ट पर्व (३.१८.१८६)
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