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________________ कथा वे कहें ? वैराग्य से पूर्ण तप और नियम संबंधी कथाएँ, जिन्हें श्रवण कर संवेग निर्वेद भाव की वृद्धि हो । अर्थबहुल कथा का इस प्रकार कथन करना चाहिए जिससे कि कथा के बहुत लम्बी हो जाने से श्रोता को वह भारी न पड़े अति प्रपंच वाली कथा से कथा का प्रयोजन ही नष्ट हो जाता है, अतएव क्षेत्र, काल, पुरुष तथा अपनी सामर्थ्य को समझ-बूझकर निर्दोष कथा कहना ही उचित है ।' ३. शृङ्गारप्रधान कामसंबंधी कथाएँ कहा जा चुका है कि कथा को रोचक बनाने के लिए उसमें मनोरंजन, कुतूहल एवं जिज्ञासा का भाव आवश्यक है । लेकिन कथा को सरस बनाने के लिए उसमें प्रेम तत्त्व भी चाहिए । प्रेम में रूप-सौन्दर्य को आत्मसात् करने के लिए अपनी वैयक्तिकता के बाहर जाकर हमें उस व्यक्ति, विचार अथवा क्रिया-कलाप के साथ तादात्म्य स्थापित करना होता है। जब हम किसी सुन्दर नायिका को बार-बार देखते हैं तो उससे हमारे मन में उसके प्रति प्रेमभाव उत्पन्न होता है। प्रेम से रति, रति से विश्रम्भ और विश्रम्भ से प्रणय की उत्पत्ति होती है। रति सिंगाररसुत्तइया मोहकुवियफुफुगा हसहसिति । जं सुणमाणस्स कहं समणेण ण सा कहेयव्वा । समणेण कहेयव्वा तवनियमकहा विरागसंजुत्ता । जं सोऊण मणुस्सो वच्चइ संवेगनिव्वेयं ।। अस्थमहंतीवि कहा अपरिकिलेसबहुला कहेयव्वा । हंदि महया चडगरतणेण अत्थं कहा हणइ ॥ खेतं काल पुरिसं सामत्थ चप्पणो वियाणेत्ता । समणेण उ अणवज्जा पगयंमि कहा कहेयव्वा ॥ २१२-१५ यहां कथा के मूलकर्ता और आख्याता की अपेक्षा, कथाओं को अकथा, कथा और विकथा-इन तीन भागों में विभक्त किया है। कथा का लक्षण है: तवसंजमगुणधारी जं चरणत्था कहिंति सब्भावं । सव्वजगजीवहियं सा कहा देसिया समये ॥२१॥ - जिसे तप और संयम के धारक सद्भावपूर्वक कहते हैं, संसार के समस्त जीवों का हित करने वाली घह कथा सत्कथा है। २. सइ दंसणाउ पेम्म पेमाउ रई रईए विस्संभो ।। विस्संभाओ पणओ पं वह वड्ढए पेम्मं ॥ - बृहत्कल्पभाष्य (१.२२६८-६९); दशवैकालिकचूर्णी ३, पृ० १०६, गाथा सप्तशती (७.७५) में प्रेम का निम्नलिखित मार्ग बताया है अत्थकरूसणं खणपसिज्जण अलिअवअणणिब्बंधो।। उम्मच्छरसन्तावो पुत्तअ ! पअवी सिणेहस्स ॥ - अचानक रूठ जाना. क्षणभर में प्रसन्न हो जाना, झूठ बोलकर किसी बात का आग्रह ... करना और ईर्ष्या के कारण संतप्त रहना-यह प्रेम का मार्ग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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