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________________ को महत्त्व न देते हुए उसी कथा को श्रेष्ठ कहा है कि जिससे सरलता पूर्वक स्पष्ट अर्थ का ज्ञान हो सके।' विकथाओं का त्याग जान पड़ता है कि कालान्तर में शनैः शनैः धर्मकथा की ओर से विमुख होकर जैन श्रमण ( बौद्ध भी) अशोभन कथाओं की ओर आकर्षित होने लगे जिससे आचार्यों को विकथाओं स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा-से दूर रहने का आदेश देना पड़ा। बौद्धसूत्रों में कहा है कि बौद्ध भिक्षु उच्च शब्द करते हुए, महाशब्द करते हुए, खटखट शब्द करते हुए राजकथा, चोरकथा जनपदकथा, स्त्रीकथा आदि अनेक प्रकार की निरर्थक कथाओं में संलग्न रहते थे, जब कि गौतम बुद्ध ने इन कथाओं का निषेध कर, दान, शील और भोगोपभोग त्याग संबंधी कथाएँ कहने और श्रवण करने का उपदेश दिया। ___ दशवैकालिक नियुक्ति (२०७) में स्त्री, भक्त, राज, चोर, जनपद, नट, नर्तक जल्ल (रस्सी पर खेल दिखाने वाले बाजीगर), और मुष्टिक (मल्ल विकथाओं का उल्लेख है। यहाँ जैन साधुकों को आदेश है कि उन्हें शृङ्गार रस से उद्दीप्त, मोह से फूत्कृत, जाज्वल्यमान मोहोत्पादक कथा न कहनी चाहिए । तो फिर कौनसी १. भणियं च पिययमाए पिययम किं तेण सहसत्थेण । जेण सुहासिय- मग्गो भग्गो अम्हारिस जणस्स ॥ उवलब्भइ जेण फुडं अत्थो अकयत्थिएण हियएण । सो चेयं परो सहो णिच्चो कि लक्खणेणम्हं ॥ ३९-४०। विकथा का लक्षणजो संजओ पमत्तो रागद्दोसवसगओ परिकहेइ । सा उ विकहा पवयणे पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं ।।-दशवैकालिकनियुक्ति (३.२११, पृ० ११३अ) - जो कोई संयत मुनि प्रमत्त भाव से रागद्वेष के अधीन हुआ कथा कहता है, उसे प्रवचन में धीर पुरुषों ने विकथा कहा है । स्थानांग सूत्र में चार विकथाओं का और समवायांग (२९) में विकथानुयोग का उल्लेख है । तथा देखिए, निशीथ भाष्य (पीठिका, ११८-३०) । ४. देखिए विनयपिटक, महावग्ग ५.७.१५, नालन्दा देवनागरी प्रालि ग्रन्थमाला, १९५६ ...तथा दीघनिकाय, सामअफलसुत्त (१-२), पृ० २५; पोट्ठपादसुत (१-९), पृ. ६७; महापदानसुत्त (२-१), पृ० १०७; उदुम्बरिकसीहनाद (३-२), पृ० २२६; राहुल सांकृत्या यन, हिन्दी अनुवाद, १९३५ । । ५. वट्टकेर के मूलाचार (वाक्यशुद्धि-निरूपण) में स्त्री, अर्थ, भक, खेट, कर्बट, राज, • चोर, जनपद, मगर और आकर कथाओं के नाम आते हैं । देवेंद्रसूरिकृत सुदंसणा चरिय (प्रथम उद्देश) में राज, स्त्री, भक्त और जनपद कथाओं के त्याग का उपदेश है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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