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दशवैकालिक नियुक्ति में अर्थ, काम, धर्म और मिश्रित कथाओं के भेद से कथा के चार भेद बताये हैं । हरिभद्रसूरि ने इस भेद को मान्य किया है । किन्तु कुवलयमाला के कर्त्ता दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि ने अर्थ और कामकथा के पूर्व धर्मकथा का उल्लेख कर धर्मकथा को प्रमुखता दी है । इसी रचना में अन्यत्र कथा के पांच प्रकार बताये गए हैं-सकलकथा, खण्डकथा उल्लापकथा, परिहासकथा तथा वरकथा । कुवलयमाला को संकीर्ण कथा कहा गया है क्योंकि इसमें समस्त कथाओं के लक्षण विद्यमान हैं । हरिभद्रसूरि ने आचार्य परम्परागत दिव्य, दिव्य - मानुष्य कथाओं का उल्लेख किया है । " कौतूहल की लीलावई - कहा में भी कथाओं के इन प्रकारों का उल्लेख है जिनकी रचना महाकवियों ने संस्कृत, प्राकृत तथा संकीर्ण (संस्कृत - प्राकृत) भाषाओं में की है । यहाँ व्याकरण (शब्दशास्त्र) १. निर्युक्ति गाथा ३. १८८; हारिभद्रीयवृत्ति, पृ० १०६ । २. समराइच्चकहा, भूमिका, पृ० ३, पण्डित भगवानदास ३. ७:८, पृ० ४ | हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन (८.७-८ पृ० ४६२-६५) में आख्यायिका, कथा, आख्यान, निदर्शन, प्रवह्निका, मन्थल्लिका, मणिकुल्या, परिकथा, खण्डकथा, सकलकथा, उपकथा और बृहत्कथा - ये कथा के भेद बताये हैं । साहित्यदर्पण (६.३३४-३५) में निम्नलिखित दस भेद पाये जाते हैं -आख्यायिका, कथा, कथानिका, खण्डकथा, परिकथा; सकलकथा, आख्यान, उपाख्यान, चित्रकथा और उपकथा । समराइच्च कहा को सकलकथा कहा गया है । आख्यायिका ऐतिहासिक अथवा परम्परागत होती है जबकि कथा में कल्पना का प्राधान्य पाया जाता है । शृङ्गार प्रकाश के कर्ता भोजराज ने बाण की कादम्बरी और कौतूहल की लीलावई को श्रेष्ठ कथाएँ कहा है । अन्य प्राकृत काव्यों में शूद्रककथा इन्दुमती ( खण्डकथा ), सेतुबन्ध गोरोचना, अनंगवती (मन्धुली), चेटक (प्रवह्निका), मारीचवध, रावणविजय, अब्धिमन्थन, भीमकाव्य, हरिविजय का उल्लेख किया है। डाक्टर वी. राघवन, भोजराजश्शृङ्गार प्रकाश, पृ० ८१८, मद्रास, १९६३: काव्यानुशासन, ८.८, पृ० ४६३-६५ ।
संस्कृत - छायानुवाद सहित, १९३८ ।
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कहीं कुतूहल से, कहीं परवचन से प्रेरित होने के कारण, कहीं संस्कृत में, कहीं अपभ्रंश में, कहीं द्राविड़ और पैशाची भाषा में रचित, कथा के सर्वगुणों से संपन्न, शृङ्गार रस से मनोहर, सुरचित अंग से युक्त, सर्व कलागम से सुगम कथा संकीर्णकथा हैकोऊहले कत्थइ पर- वयण - वसेण सक्कय- णिबद्धा । किंचि अवब्भंस- कया दाविय - पेसाय - भासिल्ला ॥ सव्व-कहा- गुण - जुत्ता सिंगार-मणोहरा सुरइयंगी ।
सव्व कलागम - सुहया संकिण्ण-कहति णायव्वा ॥ कुवलयमाला ७, पृ० ४
समराइच्चकहा, पृ० ३
गाथा, ३५-३६ ।
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