SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१ पिता ने उत्तर दिया- बेटा ! तू कितना धन कमायेगा ? हमारे पास इतना है जो तेरे और मेरे दोनों के बेटे-पोतों के लिए काफी होगा । इसलिए तू यहीं रहकर दान-पुन कर, विदेश जाकर क्या करेगा ? लोभदेव – पिताजी, जो धन अपने पास है, वह तो अपना है ही, मैं अपने बाहुबल से धन का उपार्जन करना चाहता हूँ | लोभदेव ने घोड़ों को सजाया, यान वाहनों को तैयार किया, वस्त्रों को ग्रहण किया, यानवाहकों को खबर भेजी, कर्मकरों को नियुक्त किया, गुरुजनों की आज्ञा प्राप्त की, और मंगल के लिए गोरोचन को नमस्कार किया । तत्पश्चात् जब सब चलने को तैयार हुए तो पिता ने पुत्र को उपदेश दिया- बेटे ! दूर देश जाना है, मार्ग विषम हैं, लोग निष्ठुर हैं, दुर्जन बहुत हैं, सज्जन थोड़ हैं, माल की पहचान मुश्किल से होती है, यौवन दुर्धर है, बहुत लाड़-प्यार में तुम पले हो, कार्य की गति विषम है, काल की रुचि अनर्थकारक है और चोर डाकू बिना ही कारण कष्ट देते हैं । अतएव कभी पंडित बनकर, कभी मूर्ख बनकर, कभी चतुर बनकर, कभी निष्ठुर बनकर, कभी दयालु बनकर, कभी निर्दय बनकर, कभी शूरवीर बनकर, कभी कायर बनकर, कभी त्यागी बनकर, कभी कृपण बनकर, कभी मानी बनकर, कभी दोनता से, कभी विदग्धता से और कभी जड़ता से काम निकालना ।' कालान्तर में लोभदेव शूर्पारक नगर पहुँचा । यहाँ घोड़े बेचकर उसने बहुतसाधन कमाया । फिर उसने अपने देश लौट चलने का इरादा किया । इस समय उसे स्थानीय देशी व्यापारी मंडल का निमंत्रण मिला । इसमें कहा गया था कि जो कोई देशांतर से आया हुआ अथवा स्थानीय व्यापारी हो, वह जिस देश में गया हो, जो माल लेकर गया हो या माल लेकर आया हो, या जो कुछ उसने कमाई की हो, उस सबका ब्यौरा वह देशी वणिकोंको दे और मंडल की ओर से गंध, तांबूल और माला स्वीकार करे; उसके बाद वह गंतव्य स्थान को जा सकता है । किसी ने कहा- मैं घोड़े लेकर कोशल देश गया था । कोशल के राजा ने मुझे भाइल जाति के घोड़ोंके साथ हाथी के शिशु भी दिये । १ इसी प्रकार का उपदेश यशधवल श्रेष्टी धनोपार्जन के लिए परदेश की यात्रा के लिए प्रस्थान करते समय अपने पुत्र धर्मदत्त को देता है । देखिए पद्मचन्द्रसूरि के अज्ञात - नामा शिष्य द्वारा रचित प्राकृतकथासंग्रह | यह कहानी 'रमणी के रूप' में 'दो बहुमूल्य उपदेश' शीर्षक के नीचे दी गयी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy