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________________ दूसरे ने कहा-मैं सुपारी आदि लेकर उत्तरापथ गया था, वहाँ से घोड़े लेकर लौटा। तीसरा-मैं मोती लेकर पूर्वदेश गया था, वहाँ से चामर लेकर आया । चौथा—मैं द्वारका गया था, वहाँ से शंख लाया । पाँचवां-मैं वस्त्र लेकर बर्बरकूल गया था, वहाँ से हाथी-दांत और मोती लेकर लौटा। छठा-मैं पलाश के पुष्प लेकर सुवर्णद्वीप (सुमात्रा) गया था, वहाँ से सोना लेकर आया । सातवां—मैं भैंस और गाय लेकर चीन और महाचीन गया था, वहाँ से रेशम लेकर लौटा। आठवां-मैं पुरुषों को लेकर स्त्रीराज्य गया था, वहाँ सोने से तोलतोलकर उन्हें बेचा। नौवां—मैं नींब के पत्ते लेकर रत्नद्वीप गया था, वहाँ से बहुत-से रत्न लेकर वापिस आया। यह सुनकर व्यापारियों के मन में रत्नद्वीप जाने की इच्छा बलवती हो उठी। लेकिन रत्नद्वीप बहुत दूर है, समुद्र द्वारा लम्बी यात्रा है, प्रचण्ड वायु का प्रकोप रहता है, चंचल तरंगों को पार करना पड़ता है, बड़े-बड़े मत्स्य, मगर, ग्राह, दीर्घ तन्तु, और निगल जाने वाले तिमिंगल मत्स्य, रौद्र राक्षस, ऊँचे उड़ने वाले बेताल, दुर्लध्य पर्वत, कुशल चोर, भीषण तूफानी महासमुद्र आदि को पारकर वहाँ पहुँचना होता है । लेकिन दुख के बिना सुख भी तो नहीं ? “जो पुरुष निरुद्यमी है उसे, जैसे लक्ष्मी हरि को छोड़कर चली जाती है, वैसे ही छोड़कर चली जाती है; और जो उद्यमशील रहता है, उसकी ओर लक्ष्मी की नजर जाती है। गोत्रस्खलन से निस्तेज हुई प्रिय पत्नी जैसे अपने प्रिय को छोड़ देती है, उसी तरह साहसविहीन पुरुष का आलिंगन करके भी लक्ष्मी उसे छोड़ देती है। जैसे कुलबालिका नववधू लज्जापूर्वक व्यग्र पति की ओर दृष्टिपात करती है, वैसे ही लक्ष्मी पुरुष को कार्य में संलग्न जान उसकी ओर नजर फेरती है। जो धीर पुरुष विषम परिस्थितियों में भी आरम्भ किये हुए कार्य से मुँह नहीं मोड़ता, उसके वक्षस्थल पर लक्ष्मी, किसी अभिसारिका की भाँति आकर विश्राम करती है। प्रोषितभर्तृका की भाँति न्याय-नीति और पराक्रम द्वारा वश में की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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