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________________ १३२ पहुँचकर कुछ देर विश्राम किया, फिर तपोवन में प्रवेश किया । वहाँ पिशांग जटा - धारी एक मुनि के दर्शन किये ।' चंपानगरी केवल पाँच कोस रह गयी थी । वहाँ पहुँचकर सानुदास ने अपने उन्हीं धूर्त मित्रों से घिरे हुए ध्रुवक को देखा । सानुदास मित्रों से गले मिला । जिन्होंने उस पर गोबर का पानी फेंककर उसे तिरस्कृत किया था; उनका दरिद्रता से उद्धार किया । ध्रुवक सलाह दी कि माँ को दरिद्रवाटक में से लाकर अपने निज के घर में रक्खा जाये । जैसे कुबेर अलकानगरी में प्रवेश करता है, वैसे ही सानुदास ने चंपा में प्रवेश किया । राजा के दर्शन किये । परस्पर दर्शन स्पर्शन के बाद राजा ने आभूषण आदि प्रदान कर सानुदास का सत्कार किया । वह अपनी माँ से मिलने गया । माँ ने अर्ध प्रदान किया । सानुदास ने सिर से अपनी माँ के चरणों का स्पर्श कर वंदन किया । अपने बेटे को हाथ से पकड़कर वह घर के अंदर ले गयी । वहाँ पहली पत्नी को बैठे हुए देखा । सानुदास ने गंगदत्ता, समुद्रदिन्ना, सिद्धार्थक वणिकू, और आचेर आदि के वृत्तान्त सुनाये, तथा मामा गंगदत्त द्वारा सत्कार किये जाने, समुद्र यात्रा करने और यात्रा करते समय जहाज के फटने आदि की कथा सुनाई । सानुदास परिवार के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा । इस प्रकार हम देखते हैं कि वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में केवल कथाओं, कथा-प्रसंगों, चरित्रों, चरित्रगत विवरणों, अध्यायों के नामों और वातावरण का ही साम्य नहीं, भाषा और शब्दावलि का भी साम्य देखने में आता "है; यद्यपि एक रचना गद्य में है और दूसरी पद्य में । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में कितने ही शब्द ऐसे है जो प्राकृत भाषा से ज्यों-के-त्यों ले लिये गये हैं । ऐसे भी अनेक शब्दों का प्रयोग यहाँ हुआ है जो अप्रसिद्ध हैं और संस्कृत साहित्य में प्रायः अन्यत्र नहीं मिलते । वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह की समान विशेषताओं का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि दोनों ग्रंथकर्ताओं के सामने कोई ऐसी कथा संबंधी कृति रही होगी जिसको आधार मानकर उन्होंने अपनी कृतियों की रचना की । गुणाढ्य की बहत्कथा के अनुपलब्ध होने से यह अत्यन्त निश्चयपूर्वक कहना कठिन है १. छठा भाग ४२३-५१८, पृ० २९८- ६८ । ७ वां भाग, ५९२-६१३, पृ० २७४-७६ ८ वां भाग, ६१४–७०२, पृ० २७६-८४ २. ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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