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"रात्रि में चांदनी छिटकी हुई है, वामा का मार्ग निरुद्ध है, मदन दुर्धर्ष है, शरदऋतु कितनी सुहावनी लग रही है, फिर भी समागम का कोई उपाय नहीं' !"
साधु-साध्वी का प्रेमपूर्ण संवाद
साधु — तुम आज भिक्षा के लिए नहीं गयी ? साध्वी—आर्य ! मेरा उपवास है ।
"क्यों ?
मोह का इलाज कर रही हू । लेकिन तुम्हारा क्या हाल है ?
मैं भी उसी का इलाज कर रहा हूँ ।
( तत्पश्चात् दोनों में प्रव्रज्या के संबन्ध में बातचीत होने लगती है )
साधु —तुमने क्यों प्रव्रज्या ग्रहण की ?
साध्वी-पति के मर जाने से ।
" मैंने पत्नी के मर जाने से ।"
( साधु उसे स्नेह - भरी दृष्टि से देखता है) "क्या देख रहे हो ?"
साधु - दोनों की तुलना कर रहा हूँ । हँसने, बोलने और सौन्दर्य में तुम मेरी भार्या से बिल्कुल मिलती जुलती हो । तुम्हारा दर्शन मेरे मन में मोह पैदा करता है । साध्वी — मेरा भी यही हाल है ।
साधु- वह मेरी गोदी में सिर रखकर मर गयी । यदि वह मेरी अनुपस्थिति में मरती तो कदाचित् देवताओं को भी उसके मरने का विश्वास न होता । तुम वह कैसे हो सकती हो ?
सिंहकुमार और कुसुमावली की प्रेम कथा
राजकुमार सिंह अपने मित्रों से परिवेष्टित हो वसंतक्रीड़ा के लिए क्रीड़ा सुन्दर उद्यान में पहुँचता है। राजकुमारी कुसुमावली भी अपनी सखियों के साथ वहाँ आई हुई है । दोनों की आँखें चार होती हैं । कुसुमावली की सखी कुमार का १. काले सिही - णंदिकरे, मेहनिरुद्धम्मि अंबरतलम्भि |
मित- मधुर - मंजुभासिणि, ते धन्ना जे पियासहिया || कोमुतिणिसा य पवरा, वारियवामा य दुद्धरो मयणो । रेहंति य सरयगुणा, तीसे य समागमो णत्थि ॥
-- निशीथभाष्य ६, २२६३-४ २ निशीथविशेषचूर्णी, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. २४३.
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