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________________ काम पुरुषार्थ की मुख्यता हरिभद्रसूरि ने काम की मुख्यता प्रतिपादन करते हुए उसके अभाव में धर्म और अर्थ की सिद्धि का निषेध किया है। समराइच्चकहा में समरादित्य अशोक, कामांकुर और ललितांग' नामक मित्रों के साथ कामशास्त्र की चर्चा करता है, उद्यानों में रमण करता है, हिंडोलों में झूलता है, कुसुमों की शैया रचता है और विषमबाण (कामदेव) की स्तुति करता है। चारों मित्र कामशास्त्र की चर्चा करते हुए काम को संपूर्ण रूप से त्रिवर्ग का साधन मानते हैं । कामशास्त्रोक्त प्रयोग जानने वाला पुरुष ही अपनी स्त्री के चित्त का सम्यक् प्रकार से आराधन कर सकता है, और पुत्रोत्पत्ति होने से वह विशुद्ध दान आदि क्रिया के कारण महान् धर्म की उपलब्धि का भागी होता है । यदि स्त्री के चित्त का आराधन न किया जाये तो उसका संरक्षण नहीं हो सकता । तथा, स्त्री का संरक्षण न होने से शुद्ध संतति (पुत्र) के अभाव में, नरकगमन के कारण विशुद्ध दान आदि क्रिया संपन्न नहीं हो सकती । इससे महान् अधर्म का भागी होना पड़ता है । काम के अभाव में धर्म और अर्थ की प्राप्ति नहीं होती और ऐसा न होने से पुरुषार्थता ही निष्फल है । प्रेमपत्र-व्यवहार __ साधु-साध्वियों के सम्पर्क न होने के सम्बन्ध में जैन आचार-ग्रन्थों में कठोर नियमों का विधान है, फिर भी उनके बीच पत्राचार को रोकना असंभव हो जाता था। कामोद्दीपक वर्षा ऋतु का आगमन देखकर किसी साधु का मन विचलित हो जाता है और वह प्रेमपत्र द्वारा अपने मन की दशा अभिव्यक्त करता है यह समय मयूरों को आनन्द देने वाला है, मेघ आकाश में छाये हुए हैं । हे मित, मधुर मंजुभाषिणी ! जो अपनी प्रिया के साथ हैं, वे कितने बड़भागी हैं। पत्र का उत्तर देखिए१. वसुदेवहिंडी (पृ०९-१०) में गर्भवास के दुख के उदाहरण स्वरूप ललितांग का आख्यान __ आता है। कुमारपालप्रतिबोध (प्रस्ताव३) में शीलवती कथा के अंतर्गत अशोक, ललितांग और कामांकुर के नाम आते हैं। परिशिष्ट पर्व (३.१९.२१५.७५) भी देखिए । २. अध्याय ९, पृ० ८६५-६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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