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________________ ७४ जब भिक्षु सोने को गया, तो लोगों ने कोठरी में एक दासी को बन्द कर बाहर से दरवाजा लगा दिया । भिक्षु समझ गया कि ये लोग उसे बदनाम करना चाहते हैं । उसने कोठरी में जलते हुए दीपक में अपना चीवर जला डाला । संयोगवश वहाँ एक रक्खी हुई पीछी भी उसे मिल गयी । प्रातःकाल होने पर बौद्ध भिक्षु अपने दाहिने हाथ से दासी को पकड़, कोठरी से बाहर निकला । १. वह ऊँचे स्वर में दिगम्बर साधुओं की ओर लक्ष्य करके कहने लगा- अरे ! जैसा मैं हूँ, वैसे ही ये सब हैं ।' ५. नीति सम्बन्धी कथाएँ नीति अर्थात् व्यवहार, बर्ताव, आचरण, मार्गदर्शन अथवा व्यवस्था । नीतिशास्त्र जानकर हम व्यवहारज्ञान यानी दुनियादारी सीखते हैं और सावधानीपूर्वक आत्मरक्षा में प्रवृत्त होते हैं। इससे जीवन का विकास होता है, समाज में व्यवस्था फैलती है और सुख और शान्ति का लाभ होता है । कथाश्रवण से पापों का नाश होना बताया गया है । सामान्य मनुष्य की प्रवृत्ति शास्त्रों में कम होती है, जबकि कथाश्रवण से उसे आनन्द मिलता है और साथ ही उद्बोध और ज्ञान भी पैदा होता है । महान् पुरुषों के उद्बोधन के लिए कहानी सबसे श्रेष्ठ माध्यम है । उदाहरण के लिए, जिन विषयों को मंत्रीगण राजा तक स्वयं पहुँचाने में संकोच का अनुभव करते हैं, उन्हें पशु-पक्षी, लौकिक अथवा अलौकिक कहानियों के बहाने प्रभावशाली ढंग से उन तक पहुँचाया जा सकता है । कुटिलजनों के प्रति ब हमारी ऋजुता सफल नहीं होती तब नीति से ही काम लेना पड़ता है । शास्त्रों में उपदेशपद, गाथा १००, पृ० ६८अ - ६९ । औत्पातिकी बुद्धि का उदाहरण । शुकसप्तति (२६) में भी इसी तरह की कहानी है । यहाँ बौद्ध भिक्षु की जगह श्वेतांबर साधु ले लेता है । चंद्रपुरी नगरी में सिद्धसेन नामक क्षपणक रहता था जिसका लोग बहुत आदर करते थे । वहाँ एक श्वेतपट ( श्वेतांबर साधु ) का आगमन हुआ और उसने सब श्रावकों को अपने आधीन कर लिया । क्षपणक को जब यह सहन नहीं हुआ तो उसने श्वेतपट के उपाश्रय में किसी वेश्या को भेजकर अफवाह उड़ा दी कि वह साधु वेश्यालोलुपी है । प्रातः काल होने पर श्वेतपट, दीपक में अपने वस्त्रों को जला, वेश्या का हाथ पकड़कर बाहर निकला। उसे देख लोग कहने लगे-अरे ! यह तो क्षपणक है! उपदेशपद और शुकसप्तति की कहानी का तुलनात्मक अध्ययन उपयोगी सिद्ध होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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