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________________ 'अप्रिय सत्य' कहने का निषेध है लेकिन कहानी का सत्य ‘प्रिय सत्य' होने से जल्दी गले उतर सकता है। संस्कृत में तंत्राख्यान, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि नीतिशास्त्र संबन्धी ऐसा भरपूर, कथा-साहित्य है जिसमें कथा के बहाने मनोरञ्जक एवं शिक्षाप्रद जीवनोपयोगी बातें कही गयी हैं।' पंचतंत्र-नीति का शास्त्र कहते हैं कि महिलारोप्य नगर में अमरशक्ति नामक राजा था। उसके तीन पुत्र थे, लकिन थे तीनों वज्रमूर्ख । अपनी सभा के पंडितों से राजा ने सलाह-मश्वरा किया। एक पंडित बोला----महाराज ! १२ वर्ष में व्याकरण पढ़ा जाता है, फिर मनु महाराज का धर्मशास्त्र, फिर चाणक्य का अर्थशास्त्र और उसके बाद वात्स्यायन का कामशास्त्र समझ में आता है। उसके बाद ही ज्ञान की प्राप्ति हुई समझनी चाहिए। ___ यह सुनकर एक मंत्री ने निवेदन किया-महाराज ! पंडितजी ने ठीक कहा है। यह जीवन बहुत समय तक टिकने वाला नहीं, और शास्त्रों का ज्ञान विशाल है । अतएव राजपुत्रों को विद्वान् बनाने के लिए कोई ऐसा शास्त्र पढ़ाना चाहिए जिससे अल्प काल में ही बोध हो सके ।। सकलशास्त्रों का पंडित विष्णुशर्मा राजपुत्रों को पढ़ाने के लिए तैयार हो गया । उसने सिंह गर्जना की कि यदि छह महिने के अंदर वह राजपुत्रों को नीतिशास्त्र का पंडित न बना दे तो वह अपना नाम बदल देगा । इससे पता लगता है कि पंचतंत्र की रचना वस्तुतः राजकुमारों के लिए की गयी थी, यद्यपि आगे चलकर बालकों के अवबोध के लिए इसका उपयोग किया जाने लगा। पंचतंत्र को नीतिशास्त्र अथवा अर्थशास्त्र भी कहा गया है । समस्तशास्त्रों का यह नीचोड़ है और नीतिशास्त्र संबंधी उसमें अनेक सुंदर आख्यान हैं। विविध कथा-कहानी तथा सुभाषित और सूक्तियों द्वारा यहाँ राजनीति एवं लोकव्यवहार की शिक्षा दी गयी है। ___ इसकी नीति और व्यवहार ज्ञान संबंधी लोकप्रचलित कहाँनियों में विद्या की अपेक्षा बुद्धि तथा बल-पराक्रम की अपेक्षा युक्ति और उपाय को मुख्य बताया है। कहानियों के पात्र प्रायः पशु-पक्षी हैं जो हमारी और आपकी तरह बोलते, बातचीत करते और सोचते-विचारते हैं। कहानियों को पढ़ते हुए जल्दी ही उनसे हम १. कथाच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते। हितोपदेश २. पंचतंत्र, कथामुख ३. ततः प्रभृत्येत्पञ्चतन्त्रकं नाम नीतिशास्त्रं बालावबोधनार्थं भूतले प्रवृत्तम्-कथामुख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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