________________
७६
आत्मीयता स्थापित कर लेते हैं । सियार को कपटी, कौए को धूर्त, बगुले को भी, बिलाव को पाखंडी, उल्लू को भयानक, ऊंट को सरल, टिटहरे को घमण्डी और गर्दभ को मूर्ख के रूप में चित्रित किया गया है ।
रामायण, महाभारत आदि संस्कृत महाकाव्यों अथवा अधिकांश संस्कृत नाटकों की भाँति नीति के इन ग्रंथों में शक्तिशाली राजाओं, विजेता सेनापतियों, प्रतिष्ठित पुरोहितों, राजमहिषियों, राजकुमारियों और श्रेष्ठियों का नहीं, बल्कि मध्यमवर्ग व्यापारियों, कृषकों, कर्मकरों, स्वार्थी ब्राह्मणों, धूर्तों, कपटी साधुओं, वेश्याओं और कुट्टिनियों आदि सामान्य जनों के वास्तविक जीवन के विविध रूपों का चित्रण देखने में आता है ।
दुर्भाग्य से मूल पंचतंत्र अप्राप्य है, इसके केवल उत्तरकालीन संस्करण ही मिलते हैं । '
पंचतंत्र के विशिष्ट अध्येता डाक्टर हर्टल के अनुसार, पंचतंत्र के सर्वाधिक लोकप्रिय संस्करण जैन विद्वानों द्वारा तैयार किये गये हैं । इसका Textus simplicior नामक संस्करण किसी अज्ञातनामा जैन विद्वान् द्वारा ९ वीं और ११ वीं शताब्दी के बीच तैयार किया गया। पंचाख्यान या पंचाख्यानक ( Textus ornator) नामक दूसरा संस्करण पूर्णभद्रसूरि ने सन् १९९९ में तंत्राख्यायिक (रचनाकाल ई०पू० २००) और textus simplicior के आधार पर तैयार किया । अपनी रचना के अंत में लेखक ने विष्णुशर्मा का नामोल्लेख करते हुए लिखा है कि सोममंत्री के आदेश से, समस्त शास्त्र पंचतन्त्र का आलोकन कर, राजनीति के विवेचनार्थ, प्रत्येक अक्षर, पद, वाक्य, कथा और श्लोक का संशोधन कर इस शास्त्र की रचना
१.
विण्टरनित्स के हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 3, भाग १, पृ० ३०९-१० में निम्नलिखित संस्करणों का उल्लेख है
(क) तन्त्राख्यायिका ( रचनाकाल ई०पू० २००) ।
(ख) पहलवी का अनुवाद ( रचनाकाल ५७० ई० ) । इस पंचतन्त्र का मूल और अनुपहलवी से सीरियायी और अरबी और अनुवाद हुए, उनसे मूल संस्कृत और पहलवी
वाद दोनों ही अप्राप्य हैं । लेकिन अरबी से जो यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद का पता लगता है ।
(ग) पंचतन्त्र का अंश जो गुणाढ्य को
बड्ढकहा में अन्तर्भूत था, और अब क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामंजरी और सोमदेव की कथासरित्सागर में उपलब्ध
1
(घ) दक्षिण भारतीय पंचतंत्र ( रचनाकाल ७ वीं शताब्दी ई० के बाद) । तंत्राख्या
यिक के यह निकट है ।
(ङ) श्लोकों का नैपाली संग्रह । दक्षिण भारतीय संस्करण के यह निकट है । इसकी हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org