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समराइच्चकहा के अलावा, सुविख्यात कथाकार हरिभद्रसूरि ने आवश्यकवृत्ति, दशवैकालिकवृत्ति तथा उपदेशपद में अपनी लाक्षणिक और प्रतीतात्मक शैली में लिखी हुई सरस कथाओं का समावेश कर प्राकृत जैन कथासाहित्य को समृद्ध बनाया है । इन कथाओं में हास-उपहास और व्यंग्य की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है । देखिये-- एक क्षुल्लक और बौद्ध भिक्षु
किसी बौद्ध भिक्षु ने एक बार गिरगिट को अपना सिर धुनते हुए देखा । उस समय वहाँ एक क्षुल्लक उपस्थित हुआ।
बौद्ध भिक्षु-क्षुल्लक ! तुम तो सर्वज्ञ के पुत्र हो ! कह सकते हो यह गिरगिट अपना सिर क्यों धुन रहा है ?
क्षुल्लक हे शाक्यवति ! तुम्हें देख यह चिन्ता से व्याकुल हुआ, ऊपरनीचे देख रहा है। तुम्हारी दाढ़ी-मूंछ देखकर इसे लगता है कि तुम भिक्षु हो, लेकिन जब यह तुम्हारे चीवर पर दृष्टिपात करता है तो मालूम होता है तुम भिक्षुणी हो।
इसके सिर धुनने का यही कारण है।' कितने कौए!
बौद्ध भिक्षु ने किसी क्षुल्लक से प्रश्न किया--बता सकते हो, इस बेन्यातट पर कितने कौए हैं ?
क्षुल्लक साठ हजार । बौद्ध भिक्षु तुमने कैसे जाना ? यदि कम-ज्यादा हुए तो ?
क्षुल्लक -यदि कम हैं तो समझ लीजिए कुछ विदेश चले गये हैं । यदि अधिक हैं तो समझ लीजिए कि बाहर से आ गये हैं। दिगम्बर साधु और बौद्ध भिक्षु ।
कोई बौद्ध भिक्षु संध्या के समय थक जाने के कारण दिगम्बर साधुओं की वसति में ठहर गया। दिगम्बर साधुओं के उपासकों को यह अच्छा न लगा ।
उसे दरवाजे वाली एक कोठरी में ठहरने को कहा गया । १. उपदेशपद, गाथा ८४ टीका, पृ. ६० अ । औत्पातिकी बुद्धि का उदाहरण । २. वही, गाथा ८५, पृ० ६१ । औत्पातिकी बुद्धि का उदाहरण ।
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