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भाँति सीधा उपदेश भी उनकी कथाओं में नहीं रहता था । वस्तुतः धर्मोपदेश जैन कथा-कहानियों का अंग रहा है जसा कि कहा जा चुका है, लेकिन प्रायः कहानी के अंत में ही ऐसा होता है, जबकि केवली अपनी धर्मदेशना सुनाते हैं और नायकनायिका श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । इसके अतिरिक्त, धर्म, अर्थ और काम नामक पुरुषार्थों की पोषक तथा धर्मकथा के अन्तर्गत नीतिकथा में गर्भित की जाने वाली धूर्ती, मूों, विटों और कुट्टिनियों की कथाए भी यहाँ पाई जाती हैं । बनिज-व्यापार के लिए समुद्र यात्रा पर जाने वाले सार्थवाहों की कहानियाँ विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित करती है । प्राकृत जैन कथा-साहित्य की इन विशेषताओं का पालि साहित्य में प्रायः अभाव दिखायी देता है।
कथानक रूढियाँ और लोकजीवन कथानक-रूढ़ियों (मोटिफ) का जितना उपयोग प्राकृत साहित्य में हुआ है, उतना संस्कृत साहित्य में नहीं हुआ । प्राकृत साहित्य में विविध आनुषंगिक प्रसंगों की योजना किसी-न-किसी 'मोटिफ' के लिए की गयी है । कारण कि ये कथाएँ लोक-प्रचलित कथाओं पर आधारित हैं और लोक-कथाओं में कथानक रूढ़ियाँ भरपूर मात्रा में पाई जाती हैं, जो इन कथाओं की समृद्धि का कारण है । लोककथाओं में पुरानी कथानक रूढ़ियाँ अप्रचलित होती जाती हैं और नयी रूढ़ियाँ जुड़ती जातीहैं । इस दृष्टि से प्राकृत जैन कथा साहित्य का अध्ययन लोककथा के अध्येताओं के लिए उपयोगी है। इससे कथाओं के क्रमिक विकास तथा कथाओं के अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों पर प्रकाश पड़ता है और इस बात का पता लगाया जा सकता है कि कौनसी कहानी ने किस काल में भारत छोडकर विदेशयात्रा की और कौनसी कहानी विदेश से चलकर भारतीय कहानियों का अभिन्न अंग बन गई । मानवतावाद के सिद्धांत का इससे यथोचित समर्थन होता है ।।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से महत्त्व सांस्कृतिक महत्त्व के अतिरिक्त, प्राकृत जैन-कथा साहित्य का भाषा वैज्ञानिक महत्त्व भी कम नहीं । प्राकृत के पश्चात् अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, और राजस्थानी भाषाओं में जैन विद्वानों ने कथा-साहित्य की रचना जारी रक्खी । परिणामस्वरूप इन भाषाओं की शब्दावलि, शब्द-रचना, मुहावरे, व्याकरण, छन्द आदि पर प्राकृत का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था । इस दृष्टि से खासकर जूनी गुजराती और राजस्थानी भाषाओं का अध्ययन बहुत उपयोगी है ।
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