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________________ १५१ को निर्देश देने का अनुरोध किया। किसी से कोई उत्तर न पाकर जब वह वापिस जाने लगा तो यक्षीकामुक ने उसे बुलाकर कहा कि श्रेष्ठीकन्या सभा में उपस्थित हो । दत्तक का म्लान मुख खिल उठा । यक्षीकामुक की ओर देखकर उसने प्रसन्नता व्यक्त की। यवनिका को हटाकर, कंचुकियों से आवृत्त गंधर्वदत्ता (वर्णन ) ने सभागृह में प्रवेश किया । कंचुकी ने दक्षिण हाथ उठाकर श्रेष्ठीवचन की घोषणा की कि जो कोई वीणा बजा सकता हो, वह आगे आये । वीणादत्तक से अनुरोध किया गया लेकिन उसने सिर हिलाकर अनिच्छा प्रकट की। किसी अन्य नागरक ने वीणावादन किया जिसे सुनकर 'साधु-साधु' की आवाज सुनाई दी । लेकिन जब गंधर्वदत्ता ने सभाजनों के समक्ष सुमधुर गान किया तो सब रंग फीका पड़ गया । विष्णुगीतिका पूर्वकाल में वामन रूप धारण कर बलि को छलते समय विष्णु भगवान् ने इस लोक को तीन पदों से आक्रान्त कर लिया था । गंधर्व जनों से सेवित विश्वावसु नामक गंधर्व ने आकाश में विहार करते समय उसकी प्रदक्षिणा की । उसने स्वयं गरुड़ध्वज विष्णु की स्तुति करते हुए नारायणस्तुति नामक अद्भुत गीत गाया। इस गंधर्व से नारद ने, नारद से, वृत्रासुर इन्द्र ने, इन्द्र से अर्जुन ने, अर्जुन से विराहसुता उत्तरा ने, उत्तरा से परीक्षित ने, और परीक्षित से जनमेजय ने इसे सीखा । जनमेजय से यक्षीकामुक के पिता ने और अपने पिता से यक्षीकामुक ने इस गांधारग्राम की शिक्षा प्राप्त की। यक्षीकामुक ने गोष्ठी में प्रवेश किया । गन्धर्व दत्ता का आगमन । कंचुकी द्वारा लायी हुई वीणा को देखकर यक्षीकामुक ने कहा—इसके उदरभाग में लूतातन्तु मौजूद है इससे यह जड़ हो गयी है । दूसरी वीणा लायी गयी, लेकिन वह केशदूषित तंत्री से युक्त थी। तत्पश्चात् सुगन्धित कुसुमों से अर्चित कच्छपाकार फलक वाली वीणा लेकर सानुदास स्वयं उपस्थित हुआ। यक्षीकामुक की प्रदक्षिणा कर उसे वीणा दी गयी । एक अन्य वीणा गंधर्वदत्ता को दी। दोनों ने वीणावादन किया । यक्षीकामुक ने मन्द-मन्द एक दिव्य गीत बजाया । गन्धर्वदत्ता के कोमल गीत को श्रवण कर सभाजन मानों मूर्छित हो गये । चेतना प्राप्त करने के पश्चात् कंचुकी ने उनसे प्रश्न किया-आप लोग निष्पक्ष होकर निर्णय सुनायें कि जो गन्धर्वदत्ता ने गाया है, वही यक्षीकामुक ने बजाया है या नहीं ? इसपर ऊपर हाथ उठाकर, उच्च स्वर से सभासदों ने घोषणा की कि वीणावादक कन्या को प्राप्त करने का अधिकारी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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