SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० कारण एक कौड़ी तक देने को इसके पास नहीं है । विद्या या तो गुरु की सुश्रूषा से सीखी जाती है या फिर धन खर्च करने से । इन दोनों में से इसके पास एक भी नहीं । दत्तवाहक ने आचार्य से निवेदन किया कि यक्षीकामुक को कोई दरिद्र नहीं कह सकता । वह स्वयं यक्षीकामुक का दास है, और चाहिए तो सुवर्णशत दिए जा सकते हैं। तत्पश्चात् सरस्वती की अर्चना कर दुर्व्यवस्थित तंत्रीयुक्तवीणा उसे दी गयी। उसने उसे उलटी तरफ से गोद में रक्खी । यह देखकर आचार्य ने दत्तक की ओर देखकर कहा कि यह आदमी यह भी नहीं जानता कि वीणा कैसी पकड़नी चाहिए, फिर इस मंदबुद्धि को कैसे शिक्षा दी जा सकती है। दूसरा वाद्य उसे दिया गया बजाते हुए उसकी चार-पाँच तंत्रियाँ टूट गई । आचार्य ने दत्तक से कहा कि वीणा सीखकर यह क्या करेगा। लेकिन तंत्री के छिन्न हो जाने पर भी यक्षीकामुक कोमल स्वर से वीणा बजाने लगा। दत्तक आदि को आश्चर्य हुआ । आचार्य भय, क्रोध, लज्जा और विस्मय के कारण निष्प्रभ होकर देखते रह गये । आचार्य दक्षिणा लेकर वहाँ से चले गये। एक दिन रात्रि के समय सोते हुए यक्षीकामुक की नजर वीणादत्तक की खूटी पर लटकी हुई वीणा पर गई । यक्षीकामुक उसे बजाने लगा । उसका मधुर स्वर सुनकर लोग आश्चर्यचकित हो गये और कहने लगे कि जान पड़ता है कि वीणादत्तक के घर में स्वयं सरस्वती वीणा बजाने के लिए अवतरित हुई है। - प्रातःकाल नमस्कार कर दत्तक ने यक्षीकामुक को सूचना दी कि नागरक अपनेअपने यानों पर उपस्थित हैं, उनके साथ उसे भी उत्सव में चलना चाहिए । यक्षीकामुक आगे-आगे तथा उसके पीछे दत्तक और नागरकों ने पैदल ही प्रस्थान किया। उन्होंने गृहपति सानुदास के गृह में प्रवेश किया। पहले कक्ष में महापटोर्ण से वेष्टित दत्तक आदि ६४ नागरकों के लिए ६४ आसन बिछे हुए थे। यक्षीकामुक के लिए आसन नहीं था । दत्तक ने अपना आसन उसे दे दिया । दत्तक को अन्य आसन दिया गया । गणिकाओं का आगमन हुआ। स्त्रियाँ परस्पर वार्तालाप कर रही थीं कि सानुदास ने अपनी कन्या के लिए वीणावादन में विजयी होने की शर्त रखकर बड़ा अनर्थ कर दिया है, क्योंकि यदि रूप की होड़ लगती तो निश्चय ही यक्षीकामुक उसे प्राप्त कर लेता । सबने सभा में प्रवेश किया । श्रेष्ठी द्वारा नागरकों का स्वागत किया गया । कंचुकी ने नागरकों को गंधर्वदत्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy