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उसके बाद एक सियार आ धमका । उसने सोचा-यह बराबरी का है, इसे मार भगाना ही ठीक है । . उसने भृकुटी चढ़ाकर उस सियार के ऐसी जोर की लात जमायी कि वह भागता ही नजर आया।
किसी ने ठीक ही कहा है"उत्तमं प्रणिपातेन शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन, समतुल्यं पराक्रमैः ॥"
उत्तम को नम्रता से, शूरों को भेद से, नीच को थोड़ा-सा देकर और बराबरवालों को पराक्रम से जीते ।
खसद्रुम गीदड़ एक बार कोई गीदड़ रात के समय जंगल में से भागकर किसी गांव में आ गया और जब कहीं उसे बाहर जाने का रास्ता न मिला तो एक घर में घुस गया।
गीदड़ को घर में घुसा हुआ देख लोग उसे मारने दौड़े । गीदड़, भागता भागता घर के बाहर आया। लेकिन वहाँ कुत्ते उसके पिछे लग गये । वह एक नीलकुण्ड में गिर पड़ा ।
बड़ी मुश्किल से उस कुण्ड में से बाहर निकला । बाहर निकलते ही वह जंगल की ओर भागा । १. यह श्लोक महाभारत, (आदिपर्व, संभवपर्व, अध्याय १४०. ५०-५१) में जंबुक कथा में निम्न रूप में मिलता है---
भयेन भेदयेद् भीरू शूरमजलिकर्मणा ।
लुब्धमर्थप्रदानेन समं न्यून तथौजसा ॥ डॉ. प्रभाकर नारायण कवठेकर, संस्कृत साहित्य में नीतिकथा का उद्गम एवं
विकास, पृ० ३७४ । २. दशवैकालिकचूर्णी, पृ० १०४-५ । पंचतंत्र (लब्धप्रणाश) में भी यह कथा आती है।
सियार सिंह को विनम्र भाव से उत्तर देता है कि उसके लिए वह हाथी की रक्षा में नियुक्त है । व्याघ्र से कहता है--सिंह हाथी को मारकर नदी में स्नान करने गया है, तुम जल्दी ही भाग जाओ । उसके बाद चीता आता है। उससे कहता है कि जब तक सिंह लौटकर आये, तू हाथी का मांस खाकर तृप्त हो ले । जब चीते के मुँह मारने से हाथी की खाल फट जाती है तो गीदड उसे जल्दी से सिंह के आने की सूचना देता है। चीता भाग जाता है । कौए का नाम यहाँ नहीं है । 'उत्तमं प्रणिपातेन' श्लोक यहाँ उद्धृत है।
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