SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० पुत्री है । वसुदेवहिंडी में कालिंदसेना की गणिकापुत्री सुहिरण्या और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में कलिंगसेना महागणिका की पुत्री मदनमंजुका के वर्णन में बहुत समानता है। काश्मीरी रूपान्तरों में मदनमंजुका को एक बौद्ध राजा की दौहित्री बताया है । दोनों ही संस्करणों में गोमुख नायक के मित्र के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (२५ वां सर्ग) में तो उसके विग्रह का आख्यान वर्णित है। वसुदेवहिंडी में बृहत्कथा की काव्यशक्ति और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह की लाक्षणिकता के दर्शन होते हैं । विद्याधरों के पराक्रम . वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह दोनों ही रचनाओं में विद्याधर जाति के लोगों का वर्णन है। कथासरित्सागर के रचयिता सोमदेवभट्ट ने गुणाढ्य की बृहत्कथा को अपनी रचना का मूलाधार बताते हुए कैलाश पर्वत पर विराजमान शिव और पार्वती के संवाद का उल्लेख किया है। पार्वती शिवजी से कोई रम्य कथा सुनाने का अनुरोध करती हैं। अपनी पत्नी का अनुरोध स्वीकार कर वे विद्याधरों की कथा सुनाते हैं, देवतागण सदा सुख में और मानव जाति के लोग सदा दुःख में डूबे रहते हैं, अतएव दोनों के ही चरित उत्कृष्ट रूप से मनोहर नहीं होते। यह जानकर शिवजी सुख-दुःख से मिश्रित विद्याधरों के अपूर्व और अद्भुत चरित सुनाना ही पसन्द करते हैं। गुणाढ्य के पूर्व भी लेखकों ने देवी-देवताओं के चरितों की रचनाएँ की होंगी लेकिन कालान्तर में पाठक इन चरितों को सुनते-सुनते ऊब गये । अतएव गुणाढ्य ने प्राचीन आख्यानों की परम्परा से हटकर विद्याधरों के अद्भुत चरित्रों का वर्णन करना हितकारी समझा । वत्सराज उदयन के पुत्र और विद्याधरों के अधिपति नरवाहनदत्त के साहसिक कार्यों का यहाँ वर्णन किया गया है। प्राचीन जैन कथा-साहित्य में विद्याधरों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। वे आकाशगामी (खेचर) होने के कारण श्रेष्ठ विमानों द्वारा यात्रा किया करते हैं। जैनधर्म के उपासक होने के कारण वे नंदीश्वर या अष्टापद (कैलाश) की यात्रा १. एकांत सुखिनो देवा मनुष्या नित्यदुःखिता । दिव्यमानुषचेष्टा तु परभागे न हारिणो ॥ विद्याधराणां चरितमतस्ते वर्णयाम्यहं । १. १. ४७-८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy