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________________ का रूपान्तर होने से इसकी सामग्री ईसा की प्रथम शताब्दी की मानी गयी है । यही बात संघदासगणिवाचक के वसुदेवहिंडी के समय के संबंध में कही जा सकती है। आवश्यकचूर्णीकार जिनदासगणि महत्तर (६७६ ई०) ने ऋषभदेव के चरित्रवर्णन-प्रसंग तथा वल्कलचीरी और प्रसन्नचंद्र के कथावर्णन में वसुदेवहिंडी को आधार रूप में उद्धृत किया है। इससे इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता का अनुमान लगाया जा सकता है। वसुदेवहिंडी में अंधकवृष्णि वंशोत्पन्न कृष्ण के पिता वसुदेव और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में वत्सराज उदयन के पुत्र नरवाहनदत्त-दोनों देश-देशान्तरों में परिभ्रमण कर विद्याधरों और राजकन्याओं से विवाह करते हैं । संघदासगणिवाचक के वसुदेवहिंडी में वसुदेव के २९ और धर्मसेनगणि के मध्यम खण्ड में उसके ७१ विवाहों का वर्णन है।' वसुदेवहिंडी की भाँति बृहत्कथाश्लोक-संग्रह भी अपूर्ण है और यहाँ लेखक २८ विवाहों में से केवल ६ का वर्णन कर सका है । वसुदेवहिंडी में छह प्रकरण हैं -कथोत्पत्ति, धम्मिल्लहिंडी, पेढ़िया, मुख, प्रतिमुख और शरीर । कथोत्पत्ति, पीठिका और मुख में कथा का प्रस्ताव, प्रतिमुख में वसुदेव की आत्मकथा और शरीर में २९ लंभकों की कहानियाँ हैं । अंतिम लंभक त्रुटित तथा १९ और २० लंभक अनुपलब्ध हैं । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह जिसका केवल एक चतुर्थांश ही उपलब्ध है-में तीसरे सर्ग का नाम कथामुख है । वसुदेवहिंडी के तीसरे लंभक में गंधर्वदत्तालंभक तथा तेरहवें और पंद्रहवें लंभकों में वेगवतीलंभक का वर्णन है । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में तेरहवें और चौदहवें सर्गों में वेगवतीदर्शन और पंद्रहवें में वेगवतीलाभ, तथा सोलहवें सर्ग में गंधर्वदत्तालाभ, व चंपाप्रवेश और सत्रहवें सर्ग में गंधर्वदत्ताविवाह नामक प्रकरण हैं। दोनों ही रूपान्तरों में गंधर्वदत्ता वणिक् की १. धर्मसेनगणि महत्तर ने वसुदेवहिंडी के मध्यम खंड की प्रस्तावना में सूचित किया है-“वसुदेव ने १०० वर्ष तक परिभ्रमण करके १०० कन्याओं से विवाह किया । संघ दासगणि वाचक ने श्यामा से लेकर रोहिणी तक २९ लंभकों में २९ विवाहों का वर्णन किया है। शेष ७१ विवाहों को विस्तार भय से उन्होंने छोड़ दिया है। लौकिक शङ्कार कथा की प्रशंसा को सहन न करके मैंने, आचार्य के समीप निश्चय करके प्रवचन के अनुराग से,आचार्य के आदेश से, मध्यम के लंभकों के साथ कथासूत्र को जोड़ा है।' मुनि पुण्यविजयजीकी संशोधित हस्तलिखित प्रति, पृ ४-५। इसका मतलब है कि धर्मसेन ने वसुदेवहिंडी के २९वें लंभक के बाद से अपने कथासूत्र का आरम्भ नहीं किया । उन्होंने एणीपुत्रक नामक राजा की पुत्री प्रियंगुसुंदरी नामक लंभक के साथ अपने ७१ लंभकों को जोड़ा है। यही कारण है, यह ग्रन्थ मध्यम खंड नाम से कहा जाने लगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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