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________________ - २३ कुवलयचन्द और कुवलयमाला की प्रेमकथा त्रैलोक्यसुन्दरी राजकुमारी कुवलयमाला के रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर कुवलयचन्द्र मदनशर से पीड़ित हो उसे प्राप्त करने का उपाय सोचता है । असंख्य पर्वतों, प्रभूत देशों, नदियों एवं महानदियों और अटवियों को लांघ तथा अनेक दुखों को परिवहन कर वह विजयानगरी में प्रवेश करता है । उसके मन में आता है कि क्या स्त्रीवेश धारण कर राजा के कन्या-अन्तःपुर में प्रविष्ट हो त्रैलोक्यसुन्दरी के मुखचन्द्र का अवलोकन करे । फिर सोचता है, ऐसा करना ठीक नहीं क्योंकि यह सत्पुरुष के लिए शोभास्पद नहीं, और राजविरुद्ध भी यह है । यदि किसी की भुजाओं में बल है तो स्त्रीवेश वह क्यों धारण करे ? तो फिर क्या किया जाये ? मायामय बुद्धि से, किसी सखी द्वारा संकेत प्राप्त कर, अश्व पर आरूढ़ हो, रात्रि के समय उसका अपहरण क्यों न कर लिया जाये ? लेकिन यह उचित नहीं । लोग कहेंगे कि सुन्दरी का अपहरण कर वह कहाँ चला ? चोर समझकर वे मेरी निंदा करेंगे और यह बड़ा कलङ्क कहा जायेगा । तो क्या लज्जा को त्याग, उसे आज ही प्राप्त करने के लिए राजाओं के सम्मुख जा कर गिड़गिड़ाऊं? यह भी ठीक नहीं। ऐसा करने से मदन-बाण से घायल हुआ मैं निर्लज्ज समझा जाऊंगा । तो फिर एक ही उपाय है कि अपनी विषम कृपाण द्वारा योद्धाओं को परास्त कर और दृप्त हस्ती के कुंभस्थल का विदारण कर, जयश्री की भाँति उसे मैं बलपूर्वक उठा लाऊ । ___ कुवलयमाला राजकुमार की परीक्षा के लिए कर्णाभूषण के अन्दर पत्रच्छेद्य द्वारा बनायी हुई राजहंसिनी पर द्विपदीखण्ड लिखकर अपनी दूती के हाथ उसके पास भेजती है । किसी विचित्र लिपि में सूक्ष्म अक्षरों में इस पर लिखा हुआ थाअभिनव दृष्ट प्रिय के शुभ संगम और स्पर्श की इच्छा करती हुई, दुस्सह विरह के दुःख से संतप्त, करुण आक्रंदन करती हुई, चंचल नयनों के अश्रुजल के पूर से सिक्त और नियंत्रित श्रेष्ठ राजहंसिका का अपने प्रिय हंस के साथ मिलाप कब होगा ? राजकुमार ने कोई प्रतिसन्देश न भेज केवल अपनी प्रेमिका के कलाकौशल की सराहना की। कुवलयचन्द्र अपने सखाओं के साथ किसी रमणीय उद्यान में पहुँचता है। उधर कुवलयमाला भी अपनी सखियों के साथ वहाँ आती है। कलहंसिनियों में राजहंसी की भाँति, ताराओं में शशिकला की भाँति, कुमुदनियों में कमलिनी की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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