SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ G बड़े होते हैं । पिशाच जलमय प्रदेश से डरते हैं ।' ऋद्धिधारी ऋषियों के कृशगात्र होने के कारण उनके पैरों का मध्यभाग उठा हुआ होता है । चारण मुनि जलचर जीवों की रक्षा के लिए जलवाले प्रदेश में परिभ्रमण करते नहीं । हरिशिख - तो ये फिर किसके हैं ? किसी के तो होंगे ? गोमुख --- किसी विद्याधर के । हरिशिख – विद्याधरी के क्यों नहीं ? गोमुख -- पुरुष बलवान होता है, वह उत्साह से गमन करता है । उसका वक्षस्थल विशाल होने के कारण जब वह चलता है तो उसके पैर आगे से कुछ दबे होते हैं । स्त्रियों के नितंब भारी होने से चलते समय उनके पैर पीछे से दबे होते हैं । इसलिए ये पैर विद्याधरी के नहीं हो सकते । 1 गोमुख — लगता है, वह विद्याधर कोई बोझ लिये हुए था । हरिशिख -कौनसा बोझ ? किसी पर्वत का ? वृक्ष का ? अथवा पकड़कर लाये हुए अपराधी शत्रु का ? गोमुख – यदि यह भार पर्वत का होता तो पर्वत के बोझ के कारण उसके पैर रेत में धंस गये होते । यदि वृक्ष का होता तो नदी तट पर दूर तक फैली हुई शाखाओं के चिह्न बने होते । और फिर ऐसे रमणीक स्थान पर किसी शत्रु को कोई लायेगा ही क्यों ? हरिशिख- - तो फिर यह बोझ किसका हो सकता है ? गोमुख —— किसी स्त्री का ? हरिशिख - लेकिन स्त्री का इसलिए संभव नहीं कि विद्याधरियाँ आकाशगामिनी होती हैं । गोमुख - विद्याधर की यह प्रिया भूमिगोचरी थी । उसके साथ वह रममी स्थानों में विहार किया करता था । हरिशिख-यदि वह उसकी प्रिया थी तो उसने उसे विद्याएँ क्यों नहीं सिखायीं ? गोमुख- - वह ईर्ष्यालु था । सन्देहशील होने के कारण वह सोचता था कि विद्याएँ प्राप्त कर कहीं वह स्वच्छन्दाचारी न हो जाये । हरिशिख- - कैसे जानते हो कि वह विद्याधरी नहीं थी ? १. यक्ष. राक्षस और पिशाचों का प्रभाव दिन में सूर्य के तेज से पराभूत हो जाता है । जहाँ देवताओं और ब्राह्मणों का समुचित रूप से पूजन नहीं किया जाता और भ्रष्ट रूप से भोजन किया जाता है, वहाँ ये प्रबल हो जाते हैं । जहाँ निरामिष भोजी अथवा सती-साध्वी स्त्री रहती है, वहाँ वे नहीं जाते, तथा पवित्र, शूर और प्रबुद्ध व्यक्तियों को नहीं छेड़ते । कथासरित्सागर (१. ७. ३२-७ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy