SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ये व्यापारी हो उन दिनों हमारे देश के राजदूत थे जो विभिन्न देशों के साथ हमारे वाणिज्य और सांस्कृतिक संबंधों को दृढ़ बनाने में सहायक हुए थे । इनके माध्यम से ही हमारे देश के कितने ही रीति-रिवाज, आचार-विचार एवं कथा-कहानियाँ समुद्र की सीमा लांघकर दूसरे देशों में पहुँची हैं, सथा दूसरे देशों के रीति-रिवाजों और कथा-कहानियों ने हमारी सभ्यता और संस्कृति को प्रभावित किया है।' १. एन. एम. पेंजर ने भारतवर्ष को कहानियों का भंडार बताया है। उसका कहना है कि गर्म आबहवा के कारण, यहाँ के निवासियों के स्वमाष में कुछ शिथिलता आ जाने तथा पूर्वी देशों में कुछ अधिक मात्रा में ही मेहमानदारी के कायदे-कानूनों का पालन किये जाने से, शीतल संध्या के समय स्त्रियों के बिना केवल पुरुषों की गोष्ठी में कहानी की खूब ही प्रगति हुई । यहीं से फारस के लोगों ने कहानी कहने की कला सीखी। फिर यह कला अरब में पहुँच गयी। मध्यपूर्व के कुस्तुनतुनिया और वहाँ से वेनिस होती हुई अंत में बोकाचिओ, औसर और लाफाँन्तेन (La Fantaine) की कृतियों में उद्धृत हुई । द ओशन आफ स्टोरी, इन्द्रोडक्सन, पृ. ३४-३६ । एम. विन्टरनित्स ने भारतीय कथा साहित्य का विदेशी साहित्य पर प्रभाव स्वीकार किया है । यह साहित्य यूरोप और एशिया तक ही सीमित न रहा, अफ्रीका में भी इसने प्रवेश पाया । भारत के व्यापारियों के माध्यम से यहाँ की कथा-कहानियों ने ही विदेशों की यात्रा नहीं की, अपितु भारतीय कथा साहित्य की पुस्तकों का अनुवाद भी विदेशी भाषाओं में किया गया। बहुत समय तक विद्वान भारतवर्ष को ही समस्त कथा-कहानियों का जन्मस्थान मानते रहे, किन्तु लोकवार्ता और नृकुल विज्ञान के अध्ययन के बाद यह मान्यता अब निर्मूल हो गयी है। फिर भी विदेशों की कितनी ही कहानियाँ ऐसी हैं जो भारतवर्ष से ही उन देशों में पहुँची हैं। हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द ३, भाग १, पृ० ३०२-३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy