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मलयवती, मगधसेना बन्धुमती और सुलोचना जैसी प्रेमाख्यायिकाओं का अध्ययनअध्यापन कम हो गया और कालान्तर में इन कृतियों को नष्ट घोषित कर दिया गया । उल्लेखनीय है कि कामकथाप्रधान गुणाढ्य की बृहत्कथा पर अधारित वसुदेवहिंडी जैसी महत्त्वपूर्ण कृति की भी कोई शुद्ध प्राचीन प्रति उपलब्ध न हो सकी और जो मिली, उन्हीं के आधार पर आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी के अथक परिश्रम से, वर्तमान में उपलब्ध, बीच-बीच में त्रुटित और अपूर्ण कृति ही प्रकाश में आ सकी ।'
फ्रेंच विद्वान् प्रोफेसर एफ० लाकोते ने भारतवर्ष को कथा-कहानियों का एक प्रतिष्ठित देश बताते हुए यहाँ के प्रेमाख्यानों की लोकप्रियता पर जोर दिया है । ऐसे कितने ही प्रेमाख्यानों की रचना जैन और बौद्ध विद्वानों ने अपने उपदेशों का प्रचार एवं प्रसार करने के लिए की । इन आख्यानों ने उत्तरकालीन साहित्य में रोचक कथा - कहानियों का रूप धारण किया ।
४. अर्थोपार्जन संबंधी कथाएँ
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अर्थकथा की प्रधानता
काम पुरुषार्थ की भाँति जीवन के लिए अर्थ भी आवश्यक है । हरिभद्रसूरि ने चार कथाओं में अर्थकथा को सर्वप्रथम स्थान दिया है । अर्थ के पश्चात् काम और अन्त में धर्मकथा का उल्लेख है ।
दशवैकालिक निर्युक्त में विद्या, शिल्प, विविध उपाय, साहस (अनिर्वेद), संचय, दाक्षिण्य, साम, दण्ड, भेद तथा उपप्रदान द्वारा अर्थ की सिद्धि बतायी गयी है । हरिभद्रसूरि ने असि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, धातुवाद और अर्थोपार्जन के हेतु साम, दण्ड, भेद उपप्रदान आदि को अर्थ के साधन कहा है। जो अपने बाप दादाओं के धन का उपभोग करते हुए भी उसमें वृद्धि करता है, उसे अर्थ की अपेक्षा उत्तम, जो उस धन को क्षीण नहीं होने देता, उसे मध्यम और जो उसे खा-पीकर बराबर कर देता हैं, उसे अधम पुरुष कहा गया है ।
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मुनि चतुरविजय और मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित, भावनगर, १९३०
देखिए, ऐसे ऑन गुणाढ्य एण्ड द बृहत्कथा, क्वार्टर्ली जरनल आफ द मीथिक सोसायटी, बंगलूर, १९२३
गाथा ३.१८९ । इनके उदाहरण के लिए देखिए, हारिभद्रीय टीका, पृ० १०६ । समराइच्चकहा, पृ० ३
वसुदेवहिंडी, पृ० १०१
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