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सोमप्रभसूरि के कुमारपालप्रतिबोध में श्रेष्ठीपुत्र सुन्दर की कथा आती है। परदेश जाकर धन कमाने के लिए अपनी माता की अनुमति मांगते हुए उसने निवेदन किया जो कायर पुरुष अपनी जवानी में धन नहीं कमाता, उसका जन्म बकरे के गले में लगे हुए स्तनों की भाँति निष्फल है। बुद्धिमान पुरुष को अपने बाप-दादाओं द्वारा कमाई हुई धन सम्पत्ति पर अवलम्बित नहीं रहना चाहिए । जैसे, समुद्र में यदि नदियों का जल न पहुचे तो वह सूख जाता है, इसी तरह यदि धन का उपार्जन न किया जाये तो अक्षय धन की राशि भी समाप्त हो जाती है । धनहीन पुरुष चाहे गुणी या गुणहीन, उसके सगे-संबंधी तक उसका अपमान करने लगते हैं।
पंचतन्त्र का मित्रभेद नाम का प्रथम तन्त्र महिलारोप्य नगर के वर्धमानक नाम वणिक पुत्र की कथा से आरम्भ होता है जो प्रचुर-धन सम्पन्न होने पर अधिक धन अर्जन का अभिलाषी है । वह विचार करता है--
ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो धन द्वारा प्राप्त न हो सके । अतएव बुद्धि. मान पुरुष को चाहिए कि वह यत्नपूर्वक धन की सिद्धि करे । जिसके पास धन है, उसी के मित्र होते हैं, उसी के भाई बन्द होते हैं, वहीं पुरुष कहा जाता है
और वही पंडित है । जो पूजने योग्य नहीं, उसकी पूजा होने लगती है, जिसके पास कोई नहीं आता, उसके पास लोग आने लगते हैं और जो वन्दनीय नहीं वह वन्दनीय हो जाता है यह सब धन का ही प्रताप है । धन होने से उम्र बीत जाने पर भी लोग तरुण कहे जाते हैं और जिसके पास धन नहीं ऐसे तरुणों को भी बूढ़ा समझा जाने लगता है अर्थोपार्जन के लिए चारुदत्त की साहसिक यात्रा
श्रेष्टी चारुदत्त के निर्धन हो जाने के कारण जब वसन्ततिलका गणिका की माँ ने चारुदत्त को घर से निकाल दिया और १२ वर्ष बाद वह घर लौटकर १. देखिए, जगदीशचन्द्र जैन, 'रमणी के रूप' में 'नगरी के न्यायी पुरुष' कहानी पृ. २६-३२
न हि तद् विद्यते किञ्चित् यदर्थेन न सिद्धयति । यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥ यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः । यस्यार्थाः स पुमाल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः । पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते । वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ॥ गत वयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः । अर्थेन तु ये हीमा वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः ।। निर्धन पुरुष को वेश्याओं के घर से निकाल दिये जाने का उल्लेख कथासरित्सागर (२.४.९०-६) में भी भाता है।
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