SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शृङ्गार वस्त्र के ललित किसलय से व्याप्त, सुतन की शोभा से अह्लादित मधुकरों रूप विविध गुणों से सेवित वसुदेवचरित के रूप में स्वीकार किया है ।' वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड का रचनाकाल ईसवी सन् की लगभग ५वीं शताब्दी है, लेकिन गुणाढ्य की बृहत्कथा के नजदीक होने के कारण इसकी सामग्री ईसवी सन् की पहली शताब्दी के आसपास की जान पड़ती है । इसकी भाषा प्राकृत है । द्वितीय खण्ड या मध्यम खण्ड प्रथम खण्ड के कुछ बाद की रचना है । मुनि पुण्यविजयजी ने इसकी भाषा को शौरसेनी कहा है । इस खण्ड की रचना प्रथम खण्ड की पूर्ति के लिए नहीं की गयी, धर्मसेन गणि महत्तर ने अपनी कल्पना से इसकी रचना की है । " अन्य प्रेमाख्यान अन्य प्रेम कथाओं में भोजराज के शृङ्गार प्रकाश में उल्लिखित कुन्दनमाला, कामसेना विप्रलम्भ, शाखाविशाखोपाख्यान, शाखिनीसंवाद ईष्यालुविप्रलम्भ और सातकर्णिहरण का नाम लिया जा सकता है । २९ इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राकृत जैन कथाओं में केवल वैराग्य रस की ही प्रधानता नहीं थी, शृङ्गार रस की प्रचुर मात्रा भी यहाँ देखने में आती है । बहुत सम्भव है कि उत्तरवर्ती काल से शृङ्गार प्रचुर तरंगवती, नरवाहनदत्तकथा, 9. (क) नमिऊण त विणणं संघमहारयणमंदरगिरिस्स (ख) २. ३. (ग) Jain Education International वोच्छामि सुणह णिहुया खंडं वसुदेव चरियस्स || तं सुहइमं धम्मत्थका मकुसुमियामा (यसो) फलभरियणमितसारं सिंगारवत्थललित किसलयाकुल सुतणसोभा व मुइयमधुकरविविहगुणविहतसेवियं वसुदेवचरितलताविताणं । निसुव्वति य आयरितपरंपरगतं अवितहं दिट्ठीवाद णीसंद अरहंतचक्किबलवासुदेव गणिताणुओगकमनिद्दिहं वसुदेवचरितं ति । वसुदेवहिंडी मध्यमखण्ड, मुनि पुण्यविजयजी की संशोधित हस्तलिखित प्रति पृ० २ ४ हैम्बर्ग यूनिवर्सिटी के प्राकृत के सुप्रसिद्ध विद्वान डाक्टर एल० आल्सडोर्फ ने वसुदेवहिंडी का विशेष अध्ययन कर बुलेटिन आफ द स्कूल आफ ओरिंटियल स्टडीज, जिल्द ८, १९३५-३७ में एक महत्वपूर्ण लेख लिखा है जिसमें उन्होंने इस रचना को गुणाढ्य की बृहत्कथा के नजदीक बताया है । तथा देखिए, उनका १९ वीं इन्टरनेशनल कॉंग्रेस आफ़ ओरिंटियलिस्ट, रोम में भाषण । वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड का गुजराती अनुबाद डाक्टर भोगीलाल जे० सांडेसरा कृत, श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर से वि०सं० २००३ में प्रकाशित हुआ है । स्वीडिश भाषा में भी इसका अनुवाद हुआ है । बी० राघवन, पृ० ८२६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy