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________________ १२९ सज्जित थी (वर्णन)। उसके निकट दस वर्ष की बालिका बैठी हुई थी। राजा की दृष्टि उसकी ओर आकृष्ट हुई । वह भी राजा को मानो सहस्र नेत्रों से देखने लगी (बालिका का वर्णन)। कलिंगसेना ने बताया कि वह उसकी कन्या है और उसका नाम मदनमंजुका है। राजा ने उसे स्नेहपूर्वक अपने उरू स्थल पर बैठाया । उसकी माता को बहुत-से वस्त्राभूषण प्रदान किये । मदनमंजुका भी दीर्ध और उष्ण निश्वास छोड़ती हुई अपने घर चली गयी।' - नरवाहनदत्त जब गोमुख आदि मित्रों के साथ रथ में सवार होकर जा रहा था तो रास्ते में लम्बकर्ण, विनीत और लम्बा चोगा पहने, मषीपात्र लिए, कान में लेखनी लगाये एक कायस्थ मिला। उसने कहा- "हमारे स्वामी ने इस क्षुद्र श्ववृत्ति को सौंपकर हमें महान् कष्ट में डाल दिया है । उसका आदेश है कि इस पृथवी पर जितने विवेकवान श्रेष्ठ पुरुष हैं और जो विवेकवान नहीं हैं, उन सबकी सूची तैयार की जाये ।" इस समय दो पुस्तकें हाथ में लिए हुए उसके दूसरे साथी ने नरवाहनदत्त की ओर उंगली से इशारा किया इस अविवेकी पुरुष का नाम पुस्तक में लिख लो यह विनीत होने पर भी रथ में सवार नहीं होना चाहता; और जो बिना कहे रथ में सवार हो जाता है, उसका नाम .विवेकवान पुरुषों के रजिस्टर में लिखो। यह सुनकर नरवाहनदत्त शीघ्र ही रथ में सवार हो गया । आगे चलने पर एक हाथी मिला । सारथि ने महावत से कहा कि वह रथ के सामने से हाथी को हटा ले । उसने उत्तर दिया-तुम्हीं अपने रथ को एक तरफ हटा लो, मैं इसे ताड़ना नहीं चाहता । नरवाहनदत्त ने सारथि से कहा कि यदि महावत(अघोरण) हाथी को नहीं हटाता तो तुम अपने रथ को एक तरफ कर लो। आगे चलकर वणिक्पथ दिखायी दिया । रम्य प्रासाद की पंक्तियाँ दिखाई पड़ीं । मद से उन्मत्त प्रमदाएँ पुरुषों के साथ विविध प्रकार की क्रीडाएँ कर रही थीं। विटशास्त्रका अध्ययन किया जा रहा था । सारथि ने नरवाहनदत्त को वेश्यालय में प्रवेश कराया। नरवाहनदत्त ने १. ७. ४-१७, पृ. ८३-६ २. वसुदेवहिंडी में 'पत्तलिवासणहत्थे पुरिसे' है। ३. वसुदेवहिंडी (पृ. १०२) में 'अविहेओ मे गओ' और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में 'विहन्तुं नेच्छामि' पाठ है । वसुदेवहिंडी की कालिन्दसेना और सुहिरण्यका क्रमशः कलिंगसेना और मदनमंजुका बन गई हैं। ४. वसुदेवहिंडी (पृ० १०२) और बृहत्कथाश्लोक. दोनों में इसी शब्द का प्रयोग किया गया है। १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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