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________________ सारथि को रथ लौटाकर ले चलने को कहा । लेकिन सारथि ने उत्तर दिया कि भय की बात नहीं; यह कोई मातंगों का मोहल्ला नहीं है ? और किसी चीज के देखने मात्र से कोई दोष का भामी नहीं हो जाता । आगे बढ़ने पर एक उन्नत मंदिर दिखाई पड़ा । सुन्दर आभूषण धारण करने वाली अनेक कन्याओं ने रथ को घेर लिया। एक कन्या ने नस्वाहनदत्त को निकट आने का आमंत्रण दिया। सारथि ने प्रणयीजन के प्रणय को सफल करने के लिए नरवाहनदत्त से उस गृह में प्रवेश करने का अनुरोध किया। तत्पश्चात् जैसे कोई जंगली हाथी श्रृंखला द्वारा पकड़ लिया जाता है उसी प्रकार नस्वाहनदत्त मणिकाओं द्वारा पकड़ लिया गया । पहले कक्ष में उसने नागकन्या को, दूसरे में शिविका को, तीसरे में अश्कों को, चौथे में पक्षियों के पंजरमंडल को, पांचवें में बिविध आकार वाले सुवर्ण तारताम्रों को, छठे में धूपानुलेपन से म्लान हुए वस्त्र-परिधान को, सातवें में पट्ट, कौशेयक दुकुल वस्त्र को आठवें में मणिमुक्ता के छेदन आदि संस्कारों को देखा । सुवर्णकुण्डल धारण करने वाली कियों ने नरवाहनदत्त से निवेदन किया कि उसके चरण-कमलों से उनका घर पवित्र हो गया है । प्रासाद में पहुँच नरवाहनदत्त अनुपम गुणों से युक्त एक सुन्दर कन्या के अनुपम सौन्दर्य को देखकर मूर्छित हो गया । उसके दिये हुए आसन पर वह बैठ गया। उसके अन्य मित्र भी उसके साथ थे । कन्या के प्रश्न करने पर नरवाहनदत्त ने बताया कि वह स्वयं गजनीति और गांधर्वज्ञान में, हरिशिख दण्डनीति में, मरुभूतिक शास्त्रज्ञान में तथा तपन्तक रथ आदि यानविद्याओं में कुशल है । इस गणिकाकन्या की ओर नरवाहनदत्त का आकर्षण न हुआ । अन्य गणिकाओं को भी उसने तुच्छ समझा । इतने में रूपदेवता की भाँति एक अन्य गणिका उपस्थित हुई। उसने बिछे हुए पर्यंक की शरण ग्रहण कर रथ-संक्षोभजन्य खेद को दूर करने का अनुरोध किया। नरवाहनदत्त के पायंतो बैठकर अपने हाथों से वह उसके पाद संवाहण करने लगी । कुछ क्षणों बाद उसने कहा--आपको वक्षस्थल में भी थकान का अनुभव होता होगा, आज्ञा हो तो यह दासी थकान दूर करे । नरवाहनदत्त ने सोचा कि उसके पादतल का स्पर्श कर अपने हाथों से वह अब उसके वक्षस्थल का स्पर्श करना चाहती है । नरवाहनदत्त के अभिप्राय को समझ गणिका ने कहा- कौन मूर्ख तुम्हारे वक्षस्थल को हाथों से स्पर्श करना चाहेगा ? स्थ के संक्षोभ से उत्पन्न वक्षस्थल की थकान दूर करने के लिए स्तनोत्पीडितक-संवाहन सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। तत्पश्चात् सकंपभाव से वह अपने स्तन युक्त उर से नरवाहनदत्त के वक्षस्थल का संवाहन करने लगी। नरवाहनदत्त क्रीड़ाघर से बाहर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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