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________________ १३१ निकला । वहाँ पहले वाली कन्या मिली । उसने कहा-यह घर आपका ही है, आते रहिए । गणिकाओं की उत्पत्ति-राजा भरत ने समुद्रपर्यंत मिलने वाली कान्ताओं को एकत्र कर, एकान्त में उन सबके साथ विवाह किया। लेकिन जिस स्त्री का सर्वप्रथम उसने पाणिग्रहण किया, उसी से वह संतुष्ट हो गया। शेष को आठ गणों के सुपुर्द कर दिया। प्रत्येक गण में प्रमुख स्त्री को राजा ने आसन, छत्र और चामर की अनुज्ञा प्रदान की। जो गणों में अन्यों से महानतम थीं उन्हें महागणिका शब्द से सम्बोधित किया गया । गणमुख्य गणिकाओं के एक गण में कलिंगसेना उत्पन्न हुई । मदनमंजुका उसी की कन्या है । मदनमंजुका की कहानी--एक दिन अपनी माता कलिंगसेना को राजकुल में जाती देख मदनमंजुका ने भी जाने के लिए बार-बार अनुरोध किया । कन्या का बहुत आग्रह देख, उसे आभरणों से सज्जित कर वह राजदरबार में ले गयी । वहाँ से लौट आने पर उसके कपोल, नयन और अधरों में संतोष दिखायी दिया। अपनी सखियों के बीच बैठकर वह राजदरबार की कथाएँ सुनाती । अपनी माता को राजदरबार में जाती देख वह भी जाने के लिए उद्यत हो गयी। माता ने समझाया--बेटी ! राजाज्ञा के बिना वहाँ जाना ठीक नहीं, क्योंकि राजा लोग क्षीणस्नेही और कठोर होते हैं। माता के वचन सुनकर वह घर लौट आई । निद्रा और भोजन का त्यागकर उसने शैया की शरण ग्रहण की। नींद का बहाना कर अपनी सखियों को उसने बिदा कर दिया । वह राजकुल की तरफ मुँह कर, अंजलि बाँध, जन्मान्तर में वहाँ की वधू बनने की अभिलाषा करने लगी । गले में दुकूल पाश बाँध उसने अपने आपको खूटी पर लटका दिया । मुद्रिकालतिका ने जल्दी से उसका वह कालपाश हटा दिया। शयनीय पर लिटाकर पंखे से हवा की जिससे वह होश में आ गयी । उसने बताया कि जब वह राजकुल में गयी थी तो राजा ने उसे आदरपूर्वक अपने दक्षिण उरु पर बैठाया था, उसके वाम उरु पर राजकुमार आसीन था । मेरी नजर राजकुमार पर पड़ी और वह मेरे हृदय में बैठ गया। तभी से निर्धूम अग्नि मेरे अन्तस्तल में प्रज्वलित हो रही है। मेरे दुख का यही कारण है । मुद्रिकालतिका ने उसकी माता के पास पहुंचकर यह समाचार सुनाया । उपाय सोचा गया-राजकुमार के परम मित्र गोमुख' को वेश्यालय में प्रवेश कराया जाय, जहाँ वह राजकुमार को भी साथ लेकर आयेगा। १. वसुदेवहिंडी में बुद्धिसेन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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