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मरूभूतिक ने एकदम आकर कहा-आर्यपुत्र ! कितना बड़ा आश्चर्य है ? देखा आपने ?
हरिशिख--कूप के कच्छप के समान मोटी बुद्धि वाले तुम जैसों को सब जगह आश्चर्य ही-आश्चर्य दिखायी देता है ।
इसपर मरुभूतिक ने उंचे पुलिन के दर्शन कराये।
हरिशिख ने हँस कर कहा- उस चक्षुवान् पुरुष को नमस्कार है जिसे पुलिन भी आश्चर्यकारी लगता है! जल नीचे से बहता है और जो रेतीला स्थान है, वह पुलिन बन जाता है यदि इसमें कोई आश्चर्य लगता है तो हे मूर्ख ! तेरे जल में कौनसा दोष हुआ ?
मरूभूति--अरे भई ! पुलिन को कौन आश्चर्यकारी कहता है। पुलिन पर जो आश्चर्यकारी है, उसे भी तो जरा देखो।
हरिशिख-पुलिन पर रेत है, और क्या ? क्या रेत का होना भी आश्चर्य है ?
यह सुनकर गोमुख बोला-अरे ! भद्रमुख मरूभूतिक का क्यों मजाक उड़ाते हो ? पुलिन पर मैंने भी दो पैर देखे हैं।
हरिशिख-यदि दो पैरों का देखना आश्चर्य कहा जा सकता है तो चतुर्दश कोटि पदों का देखना तो और भी आश्चर्य की बात होगी ।
गोमुख-एक के पीछे एक पड़े हुए कोटि पदों का देखना कोई आश्चर्य की बात नहीं, लेकिन इन दोनों पैरों में अनुक्रम नहीं है, यही आश्चर्य है।
__ हरिशिख- हो सकता है कि पैरों के शेष चिह्नों को हाथ से मिटा दिया गया हो । नदी तट पर खड़े हुए वृक्ष की जो शाखा पुलिन तक आ रही है, संभवतः उसे पकड़ कोई नागरक ऊपर चढ़कर फिर नीचे उतर आया हो । उसी के ये पैर होंगे।
गोमुख--लेकिन दूर तक फैले हुए पत्तों वाली शाखा को पड़कर यदि वह ऊपर चढ़कर नीचे उतरा होता तो पृथवी पत्तों से आकीर्ण हो जाती ।
हरिशिख---तो फिर ये पैर किसके होंगे ? गोमुख-किसी दिव्य पुरुष के होने चाहिए ? हरिशिख--दिव्य पुरुष के किसके ?
गोमुख-देखो, किसी देव के तो इसलिए नहीं हो सकते कि वे पृथिवी का स्पर्श नहीं करते । यक्ष और राक्षस स्थूल शरीर होते हैं, यदि ये पैर उनके
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