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उत्सव का समय आ पहुँचा। उपाध्याय अपने शिष्यों को लेकर चले । स्कंदिल से फिर कभी जाने को कहा। स्कंदिल ने निवेदन किया-गुरुजी ! यदि इस प्रतियोगिता में कन्या को अन्य किसी ने जीत लिया तो फिर मेरा विद्या सीखना ही व्यर्थं जायेगा । मैं भी जाना जाहता हूँ। लेकिन गुरुजी ने जाने नहीं दिया ।
शिक्षार्थी ने दूसरा कडा ब्राह्मणी को भेंट किया । ब्राह्मणी ने कहा-चिंता मत कर; तू उत्सव में सम्मिलित हो और विजयी बनकर लौट ।
वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो स्कंदिल चारुदत्त की सभा में पहुँचा । सभा में विद्वान् आसनों पर विराजमान थे और शेष जन भूमि पर बैठे हुए थे ।
शिष्यों समेत बैठे हुए उपाध्याय ने शंकित मन से उसपर दृष्टिपात किया ।
स्कंदिल ने सभा में प्रवेश किया । सभागार देखकर उसने कहा-विद्याधर लोक में ही ऐसा सभागार हो सकता है, इस लोक में तो संभव नहीं ! यह सुनकर उसे भी बैठने के लिए आसन दिया गया । लोग आश्चर्यचकित नयनों से उसे देखने लगे।
भित्ति पर चित्रित हस्तियुगल देखकर उसने चारुदत्त श्रेष्ठी से कहा-श्रेष्ठी ! चित्रकारों ने इसे अल्पायु क्यों चित्रित किया ?
श्रेष्ठी-क्या तुम चित्र देखकर चित्र की आयु की भी परीक्षा कर सकते हो ?
उसने परीक्षा करके अपनी बात प्रमाणित की। सभा के लोग आश्चर्यचकित रह गये। उपाध्याय भी विस्मित हुए बिना न रहा।
गंधर्वदत्ता यवनिका के पीछे बैठी। वीणा बजाने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा था।
चारुदत्त ने घोषणा की यदि कोई गायन के लिए तैयार नहीं तो गंधर्वदत्ता वापिस जा रही है।
कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद विद्वानों ने कहा-ठीक, जा सकती है।
इस समय शिक्षार्थी ने उठकर कहा- नहीं, उसे जाने की आवश्यकता नहीं। उसकी कला की परीक्षा की जाये।
दर्शकों ने उसपर दृष्टिपात किया। वे कहने लगे - यह कोई भूमिगोचर नहीं, कोई देव अथवा अति प्रगल्भ तेजस्वी रूपवान विद्याधर प्रतीत होता है।
श्रेष्ठी के आदेश से वीणा मंगवाई गई। उसे स्कंदिल के हाथ में दी। स्कंदिल ने कहा-इसके गर्भ में कुछ है, बजाने के योग्य यह नहीं है।
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