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________________ प्रतीकों द्वारा अटवी पार करने का आख्यान एक सार्थवाह ने किसी नगर में प्रस्थान करते समय घोषणा कराई कि जो कोई उसके साथ चलना चाहे और उसके आदेश का पालन करे, वह उसे निर्विघ्न रूप से अटवी से पार कराकर इष्ट स्थान पर पहुँचा देगा । सार्थवाह की घोषणा सुनकर बहुत से व्यापारी एकत्र हो गये । सार्थवाह ने उन्हें मार्गों के गुणदोष समझाये : मार्ग दो प्रकार के होते हैं-एक सरल, दूसरा वक्र । वक्र मार्ग द्वारा सुखपूर्वक गमन किया जाता है, इसमें बहुत समय लग जाता है। सरल मार्ग से पहुँचने में कष्ट होता है, इससे जल्दी पहुँच जाते हैं । सरल मार्ग अत्यन्त विषम और संकटापन्न है। इसमें दो व्याघ्र और सिंह रहते हैं। इन्हें भगा देने पर फिर से आकर ये रास्ता रोक लेते हैं। यदि कोई उन्मार्ग से गमन करे तो उसे मार डालते हैं; जो सीधे मार्ग से जाये, उसे कुछ नहीं करते। इस मार्ग में शीतल छाया वाले अनेक मनोहर वृक्ष हैं। कुछ वृक्ष अमनोहर भी हैं, जिनके फूल-पत्त झड़ गये हैं। मनोहर वृक्षों की शीतल छाया के नीचे विश्राम करना विनाश का कारण है । अतएव जिनके फूल-पत्ते झड़ गये हैं, उन वृक्षों के नीचे थोड़े समय के लिए विश्राम करना चाहिए । मार्ग के किनारे खड़े हुए मनोहर रूपधारी पुरुष मधुर वचनों से आमंत्रित करते हैं-हे यात्रियो ! आओ, इस रास्ते से जाओ। उनकी बात पर ध्यान न देना चाहिए। अपने साथियों से थोड़ी देर के लिए भी अलग न होना चाहिए । उनके अकेले रह जाने पर भय निश्चित है। मार्ग में जाते हुए अटवी आग से जलती हुई दिखाई देगी, सावधानीपूर्वक इस आग को बुझा देना चाहिए। आग न बुझाने से स्वयं जल जाने की आशंका है। आगे चलकर एक दुर्ग और ऊँचा पर्वत पड़ेगा, उसे लांघ कर चले जाना चाहिए। ऐसा न करने से मृत्यु निश्चित है। उसके बाद बांस का गहन जंगल पड़ेगा, उसे भी जल्दी से पार कर लेना चाहिए । वहाँ ठहरने से अनेक उपद्रवों की आशंका है। उसके बाद एक छोटा-सा खड्ड पड़ेगा । वहाँ मनोहर नामक ब्राह्मण रहता है । वह कहेगातुम लोग इस खड्ड को किंचित् भरकर आगे बढ़ना । उसकी बात अनसुनी कर आगे बढ़ जाना चाहिए। यदि उस खड्ड को भरने की कोशिश करोगे तो यह और बड़ा हो जायेगा, और तुम मार्ग से भ्रष्ट हो जाओगे। आगे चलकर सुन्दर किंपाक फल दिखायी देंगे। उनकी ओर न देखना चाहिए और न इन्हें चखना ही चाहिए । अनेक प्रकार के पिशाच प्रत्येक क्षण यहाँ उपद्रव करते हैं, उनकी परवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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