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________________ न करनी चाहिए। भोजन-पान यहां बहुत थोड़ा मिलेगा और जो मिलेगा, वह अत्यन्त नीरस होगा। उससे दुखी न होना चाहिए । सदा आगे बढते जाना चाहिए । रात में भी दो याम नियम से चलना चाहिए। इस प्रकार गमन करने से शीघ्र ही अटवी को पार किया जा सकता है और एकान्त दुर्गति से रहित निर्वृत्तिपुर (मोक्ष) में पहुँचा जा सकता है। वहाँ किसी प्रकार का क्लेश और उपद्रव नहीं है। यहाँ सार्थवाह को अर्हन्त, उसकी घोषणा को धर्मकथा, सार्थ को निर्वृत्तिपुर के लिए प्रस्थान करने वाले जीव, अटवी को संसार, सरल मार्ग को साधु धर्म, वक्र मार्ग को श्रावक धर्म, व्याघ्र-सिंह को राग-द्वेष, मनोहर वृक्षों की छाया को स्त्री-पशु आदि से युक्त वसति, अमनोहर वृक्षों को निर्दोष वसति, मार्ग पर खड़े हुए पुरुषों को परलोकविरुद्ध उपदेष्टा, अच्छे सार्थ को शीलधारी श्रमण, जंगल की अग्नि को क्रोध, पर्वत को मान, बांस के जंगल को माया, खड्ड को लोभ, मनोहर ब्राह्मण को इच्छाविशेष, खड्ड के किंचित् भरने को अपर्यवसान-गमन, किंपाक फलों को शब्द आदि विषय, पिशाचों को परीषह, नीरस भोजन को निर्दोष भिक्षावृत्ति, प्रयाण न करने को सदा अप्रमाद, और दो याम गमन करने को स्वाध्याय बताया गया है । इस प्रकार संसार-अटवी को लांघकर मोक्षपुरी में पहुँचा जा सकता है।' पशिखा पर गिरने वाला पतिंगा राजा रत्नमुकुट अपने वासगृह में अकेला बैठा हुआ दीवट की दीपशिखा की ओर देख रहा था । इतने में एक पतिंगा आकर दीपशिखा पर गिरा। राजा ने अनुकंपा भाव से उसे पकड़ दरवाजे के बाहर छोड़ दिया। वह फिर से आ गया । उसने फिर पकड़ लिया और फिर से बाहर छोड़ दिया। इस तरह कई बार हुआ । राजा सोचने लगा-लोग कहते हैं, 'उपाय द्वारा रक्षित पुरुष सौ वर्ष तक जोवित रहता है', अब देखना है कि उपाय द्वारा जीव की मृत्यु से रक्षा भी की जा सकती है या नहीं। यह सोचकर उसने फिर से पतिंगे को पकड़ लेया। अब की बार उसे एक संदूकची में बन्द कर अपने सिरहाने रख कर सो वही ५, पृ० ४७६-८०; आवश्यकचूर्णी, पृ. ५०९-१० में भी यह दृष्टांत आता है। आवश्यकनियुक्ति (८९९-९००) में कहा है-'जैसे सार्थवाह के उपदेश से विघ्नों से पूर्ण अटवी को लांघकर इष्ट स्थान को प्राप्त किया जाता है, उसी प्रकार जीव जिन भगवान् के उपदेश से निर्वाण को प्राप्त करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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