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________________ तृण और डाभ से आच्छादित एक जीर्ण कूप दिखायी दिया । इस कूप के तट पर एक महान् वट का वृक्ष खड़ा था। वृक्ष की शाखाएं कूप में लटक रही थीं। डर के मारे वह पुरुष वृक्ष की शाखाएं पकड़कर कूप में लटक गया । उसने नीचे की ओर देखा तो जान पड़ा कि एक महाकाय अजगर अपना मुंह बाये उसे निगल जाने के लिए तैयार था । चारों दिशाओं में चार भीषण सर्प फुकार मार रहे थे । शाखाओं के ऊपर कृष्ण और शुक्ल दो चूहे बैठे हुए शाखाओं को कुतर रहे थे । हाथी अपनी सूंड को उसके केशों पर बार-बार घुमा रहा था । वृक्ष पर एक मधुमक्खी का बड़ा छत्ता लगा हुआ था। वृक्ष के हिलने पर पवन से चंचल हुए मधु की बूंदें उसके मुँह में टपकती थीं। इन बूंदों का आस्वाद क्षणभर के लिए उसे तृप्त कर देता था । मधुमक्खियां उसके चारों ओर भिनभिना रही थीं। इस दृष्टांत में पुरुष को संसारी जीव, अटवी को जन्म-जरा-रोग और मरण से व्याप्त संसार, वनहस्ती को मृत्यु, कूप को देव और मनुष्य योनि, अजगर को नरक और तिर्यंच गति, चार सौ को दुर्गति में ले जाने वाली क्रोध-मान-माया-लोभ चार कषाएँ, वट वृक्ष की शाखा को जीवनकाल, कृष्ण और शुक्ल मूषक को रात्रि और दिवस रूपी अपने दाँतों से जीवन को कुतरने वाले कृष्ण और शुक्ल पक्ष, वृक्ष को कर्मबन्ध के कारणरूप अविरति और मिथ्यात्व, मधुको शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गंध रूप इंद्रियों के विषय, और मधुमक्खी को शरीर से उत्पन्न व्याधि प्रतिपादित किया है। भला इस प्रकार भय से व्याकुल पुरुष को सुख की प्राप्ति कहाँ से हो सकती है ? मधुबिन्दु के रस का आस्वादन केवल सुख की कल्पना मात्र है।' इसी प्रकार का एक अन्य आख्यान देखिएकुडंग द्वीप के तीन मार्गभ्रष्ट व्यापारी __ पाटलिपुत्र के धन नामक वणिक् ने व्यापार के लिए प्रस्थान किया । मार्ग में उनका जहाज फट गया । एक पट्ट की सहायता से वह कुडंग द्वीप नामक वसुदेवहिडी, पृ. ८ । समराइच्कहा, भव २, पृ० १३४-१३९ में यह दृष्टांत किंचित परिवर्तन के साथ कुछ विस्तार से मिलता है। अमितगति की धर्मपरीक्षा और हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्टपर्व (२.१) में भी उपलब्ध है। महाभारत (स्त्रीपर्व २-७) के धृतराष्ट्रशोकापनोदन अध्ययन में, धृतराष्ट्र के पुत्रों की मृत्यु हो जाने पर विदुर उसे सान्त्वना देते हुए संसारजन्य दुखों का वर्णन करता है। मृत्यु एवं भाग्य की बलवत्ता का परिचय देते हए यहाँ मधुबिन्दु दृष्टांत का आश्रय लिया गया है । बौद्धों के अवदान साहित्य में भी यही दृष्टान्त पाया जाता है। इस्लाम, यहूदी और ईसाइयों के ग्रंथों में भी इस दृष्टान्त का उयोग किया गया है। विण्टरनित्स ने इसे प्राचीन भारतीय श्रमण काव्य की उपज कहा है । देखिए. एसेटिक लिटरेचर इन एंशियेंट इंडिया पृ० २८ -३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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