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________________ “सुन्दरी ! जरा ठहर, मैं अभी तेरी सखियों को बुलाता हूँ।" सखियाँ आ गई। कुवलयचन्द्र-देखो, जब तुम्हारी यह सखी जाने लगी तो मैंने उसे रोककर कहा कि मेरा हृदय तो वापिस देती जा । वह कहती है कि इसका निबटारा तुम लोग करोगी। सखियाँ (कुवलयमाला को लक्ष्य करके)- क्या यह ठीक है? कुवलयमाला-हाँ, बस, इतनी ही बात है। सखियाँ -अरे, यह तो बड़ा भारी विवाद है । इसका फैसला तो श्री विजयसेन राजा और नगर के अग्रगण्य ही कर सकते हैं । कुवलयमाला—नहीं, तुम ही फैसला करो कि मैंने इनका कुछ ले लिया है या इन्होंने मेरा। सखियाँ-लो, हम साफ-साफ कह देती हैं, कान लगा कर सुनो। उन्होंने तुम्हारा और तुमने इनके प्रिय हृदय का अपहरण किया है । ऐसी हालत में जुआरी और चोर की जो दशा होती है, वही तुम्हारी भी होगी। कुवलयमाला—(कुवलयचन्द्र को लक्ष्य करके) तू चोर है ।। कुवलयचन्द्र—(कुवलयमाला को लक्ष्य करके) चोर तू है, मैं नहीं।' इस प्रकार की अनेक रोचक प्रणयकथाएँ प्राकृत जैन कथा-साहित्य में उपलब्ध हैं। लीलावती और उसकी सखियों की प्रेमकथा __ कौतूहल की लीलावई का उल्लेख किया जा चुका है । जैन प्राकृत कथाग्रंथ की भाँति यह कथा-ग्रंथ धार्मिक अथवा उपदेशात्मक नहीं है । इसमें प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन और सिंहलदेश की राजकुमारी की प्रेमकथा का वर्णन है । राजा विपुलाशय और अप्सरा रंभा की कन्या कुवलयावली गंधर्वकुमार चित्रांगद के प्रेमपाश में पड़कर उसके साथ गंधर्व विवाह कर लेती है । यह जानकर राजा विपुलाशय चित्रांगद को शाप देता है जिससे वह राक्षस बन जाता है । राजकुमारी लीलावती की दूसरी सखी विद्याधरकन्या महानुमति का सिद्धकुमार माधवानिल से प्रेम हो जाता है। घर लौटने पर वह उसके विरह से १. कुवलयमाला पृ० १५८-७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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