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________________ ११४ सुभाषित प्राकृत में सुभाषित ग्रंथों की अलग से रचना की गयी । इनमें जिनेश्वरसूरि (११९५ ई०) कृत गाथाकोष, लक्ष्मणकृत गाथाकोष, मुनिचन्द्रकृत रसाउल, तथा रसालय, विद्यालय, साहित्यश्लोक और सुभाषित का उल्लेख किया जा सकता है।' कथा-ग्रन्थों में भी अनेक रोचक सुभाषित भी मिलते हैं। कुछ सुभाषितों पर ध्यान दीजिए(क) वरि हलिओ वि हु भत्ता अनन्नभज्जो गुणेहि रहिओ वि । मा सगुणो बहुभज्जो जइ रायाचक्कवट्टी वि ॥ -गुणों से विहीन एक पत्नीवाला हालिक (किसान) अनेक भार्या वाले गुण वान् चक्रवर्ती राजा की अपेक्षा श्रेष्ठ है। (ख) उप्पण्णाए सोगो वड्ढंतीए य वड्ढए चिंता । परिणीयाए उदंतो जुवइपिया दुक्खिओ निच्चं ॥ —उसके पैदा होने पर शोक होता है, बड़ी होने पर चिन्ता होती है और विवाह कर देने पर कुछ न कुछ देते ही रहना पड़ता है। इस प्रकार युवती का पिता सदा दुख का भागी बना रहता है। (ग) उच्छ्गामे वासो सेयं वत्थं सगोरसा साली। इट्ठा य जस्स भजा पिययम ! किं तस्स रज्जेण ।। हे प्रियतम ! ईखवाले गांव में वास, श्वेतवस्त्रों का धारण, गोरस और शालि का भक्षण तथा इष्ट भार्या जिसके मौजूद है, उसे राज्य से क्या प्रयोजन ? (घ) पढ़मं हि आवयाणं चिंतेयव्वो नरेण पडियारो। न हि गेहम्मि पलित्ते अवडं खणिउं तरइ कोई ॥ -विपत्ति के आने से पहले ही उसका उपाय सोचना चाहिए । घर में आग लगने पर क्या कोई कुआं खोद सकता है ?" (ङ) राईसरिसवमित्ताणि, परछिद्दाणि पाससि । अप्पणो बिल्लमित्ताणि, पासंतो वि न पाससि ॥ -दूसरों के तो राई और सरसों के समान क्षुद्र छिद्रों को भी तू देखता है, और बेल जितने बड़े अपने छिद्रों को देखता हुआ भी नहीं देखता।" प्राकृत साहित्य, पृ० ५८४-८५ णाणपंचमीकहा, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. ४४२ जिनदत्ताख्यान, प्राकृत साहित्य, पृ० ४७९ ४. भवभावना, प्राकृत साहित्य, पृ० ५१३ उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य टीका, २. १४०, पृ० १३८अ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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