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________________ १५५ उन्होंने सानुदास को निश्चित होकर गंगदत्ता के घर जाने को कहा, और वे स्वयं अपने स्थान को लौट गये । सानुदास अपने मित्रों द्वारा पुष्करमधु का पान कराकर ठगा गया था, लेकिन कान्ता और आसव के रसास्वाद के आनन्द के कारण वह उनपर नाराज नहीं हुआ। सूर्य के अस्ताचल की ओर गमन करने पर सानुदास ने गंगदत्ता के गृह में प्रवेश किया ।' __दोनों का आनन्दपूर्वक समय व्यतीत होने लगा । एक दिन दारिका सानुदास को उसके घर लेकर गयी। सानुदास ने अपनी माता से पिताजी के स्वर्गवास का समाचार सुना । गम्भीर शोक से पीडित जान राजा ने उसे बुलाया । आभूषण, वस्त्र, और चंदन आदि से उसका सत्कार कर परंपरागत श्रेष्ठीपद की रक्षा करने के लिए उससे अनुरोध किया .। कुछ समय बाद ध्रुवक ने उपस्थित होकर सानुदास से निवेदन किया कि वह शोक-पीड़ित गंगदत्ता को आश्वासन प्रदान करे । सानुदास ने उत्तर दिया-उसकी बाल्यावस्था गुजर चुकी है, इसलिए अपनी माता और मातामही के मार्ग का सेवन करना ही उसके लिए श्रेयस्कर है । तथा चिरकाल तक सतीधर्म का पालन करते हुए भी आखिर तो वह वेश्या ही है । कुटुम्बियों के लिए गणिकाओं में आसक्ति रखना और उनके शोक से संतप्त होने पर शिष्टाचार प्रदर्शित करना ठीक नहीं । लेकिन ध्रुवक के बहुत कहने-सुनने पर सानुदास उसे आश्वासन देने के लिए उसके घर पहुँचा । सानुदास के वियोग में गंगदत्ता अत्यन्त कृश हो गयी थी। सानुदास को देखकर वह क्रंदन करने लगी। सानुदास ने उसे ढाढ़स बंधाया । दोनों ने एक साथ स्नान किया, जल की अञ्जलि प्रदान की। मदिरा से पूर्ण चषक मंगाया गया । गङ्गदत्ता की माता ने दुखनाश करने के लिए तर्पण करने का अनुरोध किया । गणिका की माता के अनुरोध पर सानुदास ने त्रिफला का स्वादयुक्त मदिरा का पान किया । मदिरा के नशे के कारण पितृशोक विस्मृति के गर्भ में पहुंच गया । सानुदास के आदेश पर परिचारिकाओं द्वारा मदिरा उपस्थित की गयी । मदिरा और काम के वशीभूत हो समय व्यतीत होने लगा। ( मित्रों ने एक चाल चली । ) एक दिन गणिका की माता ने एक गणिका द्वारा सानुदास को कहलवाया--"तेरी सास कहती है कि तू रूक्ष है इसलिय तेरे १. सानुदासकथानामक १८ वें सर्ग का प्रथम भाग १-९२), पृ. २१९-२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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