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________________ की शिक्षा दिया करता था ।' काश्मीरो विद्वान् दामोदर गुप्त (आठवीं शताब्दी) ने विट, वेश्या, धूर्त, एवं कुट्टिनियों के जाल से लोगों की रक्षा करने के लिए ही 'कुट्टिनीमत' की रचना की है । धूर्तराज मूलदेव की कथा ५८ बुद्धिबल से कामीजनों को अपने पास न दूसरा भोजन, तीसरा मण्डन- आभूषण, प्रकार कामीजनों से अपने शील की रक्षा रखती हुई, वह अपना समय गुजारती । मूलदेव की नजर भी उस पर लगी थी । लेकिन वह अपने वास्तविक रूप में उसके पास नहीं जाना चाहता था । वह छद्मवेषी कामुक बन उसके पास गया। दोनों का संगम हुआ । उसे गर्भ रह गया । कोई ब्राह्मणकन्या गुप्त रूप से गणिका के वेष में रहा करती थी । अपने फटकने देती । उसका पहला पहर स्नान, और चौथा कथा वार्ता में बीतता । इस करती, किन्तु मूलदेव के संगम की इच्छा एक बार, कन्या मूलदेव के साथ द्यूत खेलने लगी । मूलदेव हार गया, वह जीत गयी । मूलदेव को बांधकर वह अपनी माँ के पास ले गयी । उसने मूलदेव से कहा – देखिए, मेरी प्रतिज्ञापूर्ण हो गयी है, तुम साक्षी हो । मूलदेव ने राजा से निवेदन किया — देखिए, महाराज, पतित्रताएँ कितनी सत्यवती होती हैं !* १. मूलदेव की दूसरी कथा मूलदेव और कंडरीक दोनों कहीं जा रहे थे । रास्ते में उन्हें एक बैलगाड़ी मिली । गाड़ी में एक तरुण अपनी स्त्री के साथ बैठा था । युवती स्त्री को देख कंडरोक ने मूलदेव को इशारा किया । कंडरीक को मूलदेव ने वृक्षों के झुरमुट में छिपा दिया और स्वयं बैलगाड़ी के पास आकर खड़ा हो गया । मूलदेव ने युवक से अनुनय-विनय की २. Jain Education International - महाकवि दण्डी ने दशकुमारचरित में द्यूतविद्या तथा कपटकला की भाँति राजकुमारों के लिए चोरविद्या में कुशल होना आवश्यक कहा है । वसुदेवहिण्डी ( पृ० २१०, २४७-४८ ) में द्यूतसभा और घतशाला का उल्लेख है । जहाँ महाधनी अमात्य, श्रेष्ठी, सार्थवाह, पुरोहित, तलवर, दण्डनायक आदि प्रभूत मणि, रत्न और सुवर्ण राशि लेकर जुगार खेलते थे । इसमें हस्तलाघव की मुख्यता रहती थी । क्षेमेन्द्र, बृहत्कथामंजरी के अन्तर्गत विषमशील प्रकरण । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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