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________________ १६८ के होने का उल्लेख मिलता है । कदाचित् इस संख्या में कुछ अत्युक्ति हो, लेकिन इससे इतना तो पता लगता है कि इस ग्रन्थ में महावीर की कही हुई अनेक प्राचीन कथाएँ विद्यमान थीं, जिनमें से बहुत-सो संभवतः आज उपलब्ध नहीं हैं। कितनी ही कथाएँ ऐसी हैं जो पूर्व परंपरा से चली आती हैं और जिन्हें 'वृद्धसंप्रदाय',' 'पूर्वप्रबंध', 'सम्प्रदायगम्य', 'अनुश्रुतिगम्य' आदि रूप से उल्लिखित किया गया है । वसुदेवहिण्डीकार संघदासगणि वाचक ने अपनी रचना को गुरुपरम्परागत ही स्वीकार किया है । कितनी ही रचनाएँ नष्ट हो गयी हैं और संभवतः उनके उपलब्ध होने की अब आशा भी नहीं है। भगवान् महावीर की समकालीन कही जाने वाली साध्वी तरंगवती के प्रेमाख्यान का वर्णन करने वाली पादलिप्त की तरंगवईकहा, तथा मलयवती, मगधसेना, मलयसुंदरी, आदि कितने ही प्रेमाख्यान उपलब्ध नहीं है । प्राकृत जैन कथा-साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि विभिन्न कथा-ग्रंथों में वर्णित एक ही कथा के पात्रों के नामों तथा घटनाओं आदि में विभिन्नता पायी जाती है । इससे कथा-साहित्य के विपुल स्रोत के विद्यमान होने का अनुमान किया जा सकता है । ____ आगम साहित्य और उत्तरकालीन कथाग्रंथों की शैली आगमों और आगमबाह्य कथाग्रंथों की वर्णन शैली में पर्याप्त भेद दिखायी देता है । आगम ग्रंथों की कथावस्तु का, बिना किसी साहित्यिक सौष्ठव के, एक ही जैसी संक्षिप्त शैली में वर्णन किया गया है । कभी तो बिना टीका-टिप्पणी के इन कथाओं का बोधगम्य होना कठिन हो जाता है । यूरोपीय विद्वानों द्वारा जैन आगमग्रंथों को 'शुष्क और नीरस' प्रतिपादन किये जाने का यही कारण हो सकता है। इस प्रसंग में वसुदेवहिंडी की वर्णनशैली विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित करती है । आगमगतकथा-साहित्य के विपरीत यहाँ नगर, राजा तथा विशेषकर राजकन्या, गणिका आदि नायिकाओं के समासाँत पदावलि युक्त नख-शिख की शैली वाले शृङ्गारप्रधान वर्णन मिलते हैं । वसुदेवहिंडी के मध्यम खण्ड के रचयिता धर्मसेन गणि ने लौकिक शृङ्गार कथाओं के अत्यधिक प्रशंसित हो जाने के कारण अपनी १. उदाहरण के लिए, राजगृह के अर्जुनक माली और मोग्गरपाणि यक्ष की कथा, जे . अंतकृद्दशांग सूत्र में आती है, उसे शान्त्याचार्यकृत उत्तराध्ययन टीका में 'वृद्धसंप्रदाय के नाम से उल्लिखित किया है। २. आल्सडोर्फ ने इसे 'तार की शैली' (टेलीग्राफिक स्टाइल) कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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