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१०८ वीर आदि तीर्थंकरों के चरितों का वर्णन किया गया । वसुदेवहिंडी में ऋषभ आदि तीर्थकरों एवं भरत आदि चक्रवर्तियों के चरित और उनके पूर्वभवों के आख्यान दिये गये ।' शीलांकाचार्य ने चउपन्नमहापुरिसचरिय में चौवन शलाकापुरुषों का जीवनचरित लिपिबद्ध किया । विमलसूरि के पउमचरिय में जैन रामायण और हरिवंसचरिय (अनुपलब्ध) में कृष्ण की कथा वर्णित की गयी। उद्योतनसूरि ने अमृतमय, सरस एवं स्पष्टार्थ की द्योतक विमलसूरि की प्राकृत भाषा को प्रशंसनीय कहा है।
स्वतंत्र रूप से भी चरित ग्रंथों की रचना हुई । गुणपाल मुनिकृत जम्बूचरित , गुणचन्द्रगणिकृत पार्श्वनाथचरित और महावीरचरित, लक्ष्मणगणिकृत सुपार्श्वनाथचरित, मानतुंगसूरिकृत जयंतीचरित, देवेंद्रसूरिकृत कृष्णचरित, जिनमाणिक्यकृत कुम्मापुत्तचरिय, हेमचन्द्र आचार्य के गुरु देवचन्द्रसूरिकृत संतिनाहचरिय (शांतिनाथचरित), मलधारि हेमचन्द्रकृत नेमिनाहचरिय (नेमिनाथचरित), सोमप्रभसूरिकृत सुमतिनाथचरित, चन्द्रप्रभमहत्तरकृत विजयचन्दकेवलीचरिय, वर्धमानसूरिकृत मनोरमाचरिय, शांतिसूरिकृत पुहवीचन्दचरिय, आदि का नामोल्लेख किया जा सकता है । शलाका पुरुषों के साथ-साथ जैनधर्म के उन्नायक प्रभव, जंबू, शय्यंभव, भद्रबाहु, स्थूलभद्र, महागिरि, सुहस्ति, पादलिप्त, कालिक, वज्रस्वामी, आर्यरक्षित, हेमचन्द्र आदि आचार्यों तथा राजीमती, चन्दनबाला, तरंगवती, नर्मदासुन्दरी, सुभद्रा आदि आर्यिकाओं के चरित मुख्य हैं ।
पौराणिक आख्यानों में बुद्धिगम्य तत्त्व जैन आचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए केवल जनसामान्य की बोली प्राकृत को ही नहीं अपनाया, अपि तु पौराणिक आख्यानों की श्रद्धागम्य अलौकिकता के स्थान पर युक्तियुक्त बुद्धिगम्य तत्त्वों को भी प्रतिष्ठित किया ।
राम और कृष्ण के लोकोत्तर चरितों का प्रणयन करते समय जैन विद्वानों का यही दृष्टिकोण रहा । रामचरित लिखते समय वाल्मीकि की रामायण का अनुकरण उन्होंने नहीं किया । घोषित किया गया कि वाल्मीकिरामायण विरोधी और
अविश्वसनीय बातों से भरी है । यहाँ रावण आदि को राक्षस और मांसभक्षी के १. आवश्यकचूर्णी में महाबीर के और हेमचन्द्रीय परिशिष्ट पर्व के प्रथम सर्ग में जम्बूस्वामी
के पूर्वभवों का वर्णन है।
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